महिषासुर वध कथा लिरिक्स Mahishasur Vadh Katha


Mahishasur vadh katha


दुर्गा माँ जी की कथा

Durga Maa Ji Ki Katha

श्री वामन पुराण के माध्यम से 

महिषासुर वंश कथा  भाग – 1
 
ऋषी पुलस्त्यजी से नारदजी ने पूछा —-ऋषे !  द्विजोतम ! प्राचीन काल मे ” भगवान शंकर ने कात्यायनी ( माँ दुर्गा ) – की रक्षा के लिए इस महान विष्णु-अज्र-स्तोत्र को उस स्थान पर कहा था, जहाँ  उन्होंने महिषासुर, नमर, रक्तबीज एवं अन्यान्य देव-शत्रुओं का नाश किया था । ”  नमर, रक्तबीज तथा अन्यान्य सुर-कंटकों का बध करने वाली ये भगवती कात्यायनी कौन है ? तात ! यह महिष कौन हैं ? तथा वह किसके कुल में उत्पन्न हुआ था ? यह रक्तबीज कौन है ? तथा नमर किसका पुत्र हैं ? आप इसका यथार्थ रूप से विस्तार पूर्वक वर्णन करें ।
 
पुलस्त्यजी बोले— नारदजी ! सुनिये ,मैं उस पाप नाशक कथा को कहता हूँ । मुने ! सब कुछ देने वाली वरदायनी भगवती दुर्गा माँ ही ये कात्यायनी हैं । प्राचीन-काल में संसार मे उथल- पुथल मचानेवाले रम्भ और करम्भ नाम के दो भयंकर और महाबलवान असुर-श्रेष्ठ थे । देवर्षे ! वे दोनों पुत्र हीन थे । उन दोनों देत्यों ने पुत्र के लिये पचन्द के जल में रहकर बहुत वर्षों तक तप किया । मालवट यक्ष के प्रति एकाग्र होकर करम्भ और रम्भ – इन दोनों में से एक जल में स्थित होकर और दूसरा पंचग्रि के मध्य बैठ कर तप कर रहा था ।
 
Hindu Dharm Main Sanskaro Ka Kya Mahatv Hain
Hindu Dharm Main Sanskaro Ka Kya Mahatv Hain
 
इंद्र ने ग्राह का रूप धारण कर इनमे से एक को जल में निम्गर होने पर पैर पकड़ कर इच्छानुसार दूर ले जाकर मार डाला । उसके बाद भाई के नष्ट हो जाने पर क्रोधयुक्त महाबलशाली रम्भ ने अपने सिर को काटकर अग्नि में हवन करना चाहा । वह अपना केश पकड़ कर हाथ में सूर्य के समान चमकने वाली तलवार लेकर अपना सिर काटना ही चाहता था कि अग्नि ने उसे रोक दिया औऱ कहा-  दैत्य वर माँगो  ! तुम स्वयं अपना नाश मत करो । दूसरे का वध तो पाप होता ही है, आत्महत्या भी भयानक पाप है । वीर तुम जो मांगोगे, तुम्हारी इच्छा के अनुसार वह मैं तुम्हें दूँगा । तुम मरो मत । इस संसार में मृत व्यक्ति की कथा नष्ट हो जाती हैं । इस पर रम्भ ने कहा – यदि आप वर देते हैं तो यह वर दीजिये कि मुझे आप से भी अधिक तेजस्वी त्रैलोक्य विजयी पुत्र उत्पन्न हो । अग्निदेव ! समस्त देवताओं तथा मानवों और दैत्यों से भी वह अजेय हो । वह वायु के समान महावलबान तथा कामरूपी एवं सर्वास्त्रवेता हो । नारदजी ! इस पर अग्निदेव ने उससे कहा – अच्छा, ऐसा ही होगा । जिस स्त्री में तुम्हारा चित लग जायेगा उसी से तुम पुत्र उत्पन्न करोगे ।
 
अग्निदेव के ऐसा कहने पर रम्भ यक्षों से घिरा हुआ मलबट यक्ष का दर्शन करने गया । वहाँ उन यक्षों का एक पदमा नाम की निधि अनन्य -चित होकर निवास करती थी । वहाँ बहुत से बकरे, भेड़ें, घोड़े, भैसें तथा हाथी और गाय-बैल थे । तपोधन ! दानवराज ने उन्हे देखकर तीस् वर्षों वाली रूपवती एक महिषी में प्रेम प्रकट किया ( अथार्त आसक्त हुआ ) काम परायण होकर वह महिषी शीघ्र दैत्यन्दर के समीप आ गयी तब भवितव्यवता से प्रेरित उसने (रम्भ ने) भी उस महिषी के साथ संगत किया ।

महिषासुरका देवताओपर आक्रमण माँ दुर्गाजी का पादुर्भाव  भाग 2
 
महिषीको गर्भ रह गया । उसके बाद उस महिषी को लेकर दानव पाताल में प्रविष्ट हुआ और अपने घर चला गया । उसके दानव-बन्धुओं ने उसे देख एवं ‘अकार्यकारक ‘ जानकर उसका परित्याग कर दिया । फिर वह पुनः मालवट के निकट गया । वह सुंदरी महिषी भी अपने पति के साथ उस पवित्र और उत्तम यक्षमण्डल में गयीं । मुने ! उसके वही निवास करते समय उस महिषी ने सन्तान उत्पन्न की । उसने एक शुभ्र इच्छा के अनुकूल रूप धारण करने वाले महिष-पुत्र को जन्म दिया ।
 
उसके पुन: ऋतुमती होने पर एक दूसरे महिष ने उसे देखा । वह अपने शील की रक्षा करती हुई दैत्यश्रेष्ठ के निकट गयीं । नाक को ऊपर उठाये उस महिष को देखकर दानव ने खडग निकाल कर महिष पर वेग् से आक्रमण किया । उस महिष ने भी तीक्ष्ण श्रंगों से दैत्य के ह्रदय में प्रहार किया । वह दैत्य ह्रदय फट जाने से भूमि गिर पड़ा और मर गया । पति के मर जाने पर वह महिषी यक्षों की सजेण में गयी । उसके बाद गुह्यकों ने महिष को हटाकर साध्वी महिषी की रक्षा की ।
 
यक्षों द्वारा हटाया गया कामातुर हयारी ( महिष ) एक दिव्य सरोवर में गिर पड़ा । उसके बाद वह मरकर एक दैत्य हो गया । मुने ! वन्य पशुओं को मारते हुए यक्षों के आश्रम में रहने वाला महान बली तथा पराक्रमी वह ‘नमर’ नाम से विख्यात हुआ । फिर मालवट आदि यक्षों ने देखा उस हयारी दैत्यश्वर की चिता पर महिषी चढ़ गयी । तब अग्नि के मध्य से हाथ में खड्ग लिए विकराल रूपवाला भयंकर पुरूष प्रकट हुआ । उसने सभी यक्षों को भगा दिया । और फिर उस बलवान दैत्य ने रम्भ नन्दन महिष को छोड़कर सारे महिषों को मार डाला । महामुने ! वह दैत्य ‘ रक्त-बीज ‘ नाम से विख्यात हुआ । उसने इन्द्र, रुद्र,सूर्य एवं मारुत आदि के साथ देवों को जीत लिया । यद्यपि वे सभी दैत्य इस प्रकार के प्रभाव के प्रभाव से युक्त थे, फिर ” उनमें महिष अधिक तेजशवी था । उसके द्वारा विजीत शम्बर, तारक आदि महान असुरों ने उसका राज्यभिषेक किया ” । लोकपालों सहित अग्नि सूर्य आदि देवों के द्वारा एक साथ मिलकर जब वह जीता नहीं गया तब चन्द्र इन्द्र एवं सूर्य ने अपना-अपना स्थान छोड़ दिया तथा धर्म को भी दूर हटा दिया गया ।
 
पुलस्त्यजी बोले —-इसके बाद महिषसुर द्वारा पराजित देवता अपने- अपने स्थान को छोड़ कर पितामह को  आगे कर भगवान चक्र धारी लक्ष्मीपति विष्णुजी के दर्शनार्थ अपने वाहनों औऱ आयुधों को लेकर विष्णुलोक चले गये । वहाँ जाकर उन लोगों ने भगवान गरुड़ वाहन विष्णुजी एवं शंकरजी इन दोनों देवश्रेषठों को एक साथ बैठे देखा । उन दोनों सिद्धि-साधको को देखने के बाद उन लोगों ने उन्हें प्रणाम कर उनसे महिषासुर की दुष्टता का वर्णन किया । वे बोले – ” प्रभो ! महिषासुर ने  अश्वनी कुमार, सूर्य , चन्द्र, वायु, अग्नि, ब्रह्मा, वरूण, इन्द्र आदि सभी देवताओं के अधिकारों को छीनकर स्वर्ग से निकाल दिया है, और अब हमलोग भूलोक में रहने को विवश हो गये हैं । हम शरण में आये देवताओं की यह बात सुनकर आप दोनों हमारे हित की बात बतलाये ; अन्यथा दानव द्वारा युद्ध में मारे जा रहे हम लोग अब रसातल में चले जायेंगे ।
 
शिवजी के साथ ही विष्णु भगवान ने भी उनके इस प्रकार के वचन को सुना तथा दुःख से व्याकुल चित्तवाले उन देवतओं को देखा तो उनका क्रोध कालाग्नि के समान प्रज्वलित हो गया । उसके बाद मधु नामक राक्षस को मारने वाले ” भगवान विष्णुजी, शंकरजी, पितामह ( ब्रह्मा ) तथा इन्द्र आदि देवताओं के क्रोध करने पर उन सबके मुख से महान तेज प्रकट हुआ । मुने ! फिर वह तेजोराशि कात्यायन ऋषि के अनुपम आश्रम में पर्वत श्रंग के समान एकत्रत हो गयी । उन महर्षि ने भी उस तेज की और अभी-बृद्धि की । उन महर्षि द्वारा उत्पन्न किये गये तेज से आव्रुत्त वह तेज हजारों सूर्यों के समान प्रदीप्त हो गया । उसके योग से ‘ विशुद्ध शरीर वाली एवं चंचल तथा विशाल नेत्रोंवाली कात्यायनी देवी ( माँ दुर्गा ) प्रकट हो गयी
 
 

देवताओका माँ दुर्गाजीके अंग निर्माण व शस्त्रआदि भेंट  भाग – 3
 
मा कात्यायनी को महादेवजीके तेजसे मुख बन गया औऱ अग्निके तेजसे उनके तीन नेत्र प्रकट हो गये । इसी प्रकार यमके तेजसे केश तथा श्रीहरिके तेजसे उनकी अट्ठारह भुजाएँ, चन्द्रमा के तेजसे उनके सटे हुए वक्षस्थल, इन्द्रके तेजसे मध्य भाग तथा वरुणके तेजसे उरु जंघाएँ एवं नितम्बोंकी उत्पति हुई । लोक पितामह व्रह्माके तेजसे कमलकोशके समान उनके दोनों चरण, आदित्योंके तेजसे पैरों की अंगुलियाँ एवं वसुओं तेजसे उनके हाथों की अंगुलियाँ उत्पन्न हुई । प्रजापतियोंके तेजसे उनके दाँत, यक्षोंके तेजसे नाक, वायुके तेजसे दोनों कान, साध्यके तेज से कामदेवके धनुष समान उनकी दोनों भौंहे प्रकट हुईं ।”
 
        इस प्रकार महर्षियों का उत्तमोत्तम तथा महान तेज पृथ्वी पर ‘ कात्यायनी ‘ नाम से प्रसिद्ध हुआ, तब वे उसी नाम से विश्व में प्रसिद्ध हुई । *वरदानी शंकर जी ने उन्हें त्रिशूल मुरके मारने वाले श्रीकृष्णने चक्र, वरुणने शंख, अग्निने शक्ति, वायुने धनुष तथा सूर्यने अक्षय बाणों बाले दो तूणीर (तरकस ) प्रदान किये । इन्द्रने घण्टा सहित वज्र यमने दण्ड, कुबेरने गदा, व्रह्माने कमण्डलूके साथ रुद्राक्षकी माला तथा कालने उन्हें ढाल सहित प्रचंड खड्ग प्रदान किया । चन्द्रमाने चँवरके साथ हार, समुद्र ने माला, हिमालयने सिंह, विश्वकर्माने चूड़ामणि, कुण्डल, अर्धचन्द्र, कुठार तथा पर्याप्त ऐश्वर्य प्रदान किया । गन्धर्वराजने उनके अनुरूप रजत का पूर्ण पान(मद्य)पात्र, नागराजने  भुजंगहार तथा ऋतुओंने कभी न कुम्हिलाने वाले पुष्पोंकी माला प्रदान की । उसके बाद श्रेष्ठ देवताओंके ऊपर अत्यंत प्रसन्न होकर त्रिनेत्रा (कात्यायनी ) – ने उच्च अट्टहास किया । इन्द्र, विष्णु, रुद्र, चन्द्र्मा, वायु, अग्नि तथा सूर्य आदि श्रेष्ठ देव उनकी स्तुति करने लगे । “
 
    योग से विशुद्ध देहवाली देवों से पूजित देवी को नमस्कार है । वे निद्रारूप से पृथ्वी में व्याप्त है, वे ही तृष्णा, त्रपा, क्षुधा, भयदा, कान्ति, श्रद्धा, स्मृति, पुष्टि, क्षमा, छाया, शक्ति, लक्ष्मी, वृति,दया, भ्रान्ति तथा माया है, ऐसी कल्याणमयी देवी को नमस्कार है ।
फिर देव वरों के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ‘ वे देवी सिंह पर आरूढ़ होकर विन्ध्य नाम के उस ऊँचे श्रृंख्वा वाले महान पर्वत पर गयीं, जिसे अगस्त्य मुनि ने अति निम्न कर दिया था ।’
 
नारद जी ने पूछा- ” शुद्धात्मन ( पुलस्त्यजी ) आप ये बतलाये की भगवान अगस्त्य महार्षि ने उस पर्वत को किसके लिये एवं किस कारण से निम्न श्रंख्वाला कर दिया ? ”  पुलस्त्यजी ने कहा– *’ प्राचीन कालमें विन्ध्य-पर्वत ( अपने ऊँचे शिखरों से )  आकाशचारी सूर्यकी गतिको अवरुद्ध कर दिया था । तब सूर्य ने महर्षि अगस्त्य के पास जाकर होम के अंत में यह वचन कहा- ” दिव्ज ! मैं बहुत दूर से आपके पास आया हूँ । मुनि श्रेष्ठ  ! आप मेरा उद्धार करें । मुझे  अभीष्ट प्रदान करें, जिससे मैं निश्चिंत होकर आकाश में विचरण कर सकूँ ।” इस प्रकार सूर्य के नम्र वचनोंको सुनकर अगस्त्यजी बोले- ” मैं आपकी अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा । मेरे पाससे कोई भी याचक बिमुख होकर नही जाता ।” अगस्त्यजी क़ी अमृतमयी वाणी सुनकर सिर पर दोनों हाथ जोड़कर सूर्य ने कहा- ” भगवन ! यह पर्वत श्रेष्ठ विन्ध्य आज मेरा मार्ग रोक रहा है, अतः आप इसे नीचा करने का प्रयत्नं करें ।”
 

देवताओका माँ दुर्गाजीके अंग निर्माण व शस्त्रआदि भेंट  भाग – 4
 
पुलस्त्यजी ने कहा- उसके बाद उस श्रेष्ठ पर्वत-शिखर पर निवास करने वाली उन तपस्विनी भगवती कात्यायनी ( दुर्गा ) को चण्ड औऱ मुण्ड नाम के दो श्रेष्ठ दानवों ने देखा और देखते ही पर्वत से उतर कर वे दोनों असुर अपने घर चले गये । फिर उन दोनों दूतों ने दैत्यराज महिषासुर के निकट जाकर कहा- ‘ असुरेन्द्र ! आप इस समय स्वस्थ तो हैं ? आइये आप चलकर विन्ध्य-पर्वत पर देखिये ; “वहाँ सुर-सुंदरियों में अत्यंत सुन्दर, श्रेष्ठ लक्ष्णों से युक्त एक तपस्वनी कन्या हैं ।
 
उस तन्वी ( सूक्ष्म देहवाली ) – ने केशपाश के द्वारा मेघों को, मुख के द्वारा चन्द्रमा को, तीन नेत्रों द्वारा तीनों ( गार्हपत्य , दक्षिणाग्रि, आहवनीय ) अग्रियों को औऱ कण्ठ के द्वारा शंख को जीत लिया है ( उसकी शोभा और तेज से ये फिके पड़ गये हैं । उसके मग्र चूचुक वालेवृत ( सुडौल गोले ) – स्तन हाथी के गण्डस्थलों को मात कर रहे हैं । मालूम होता है कि कामदेव ने अपने को सर्व-विजयी समझकर आपको परास्त करने के लिए उसके दो कुचरूपी दो दुर्गों की रचना की है ।शस्त्र सहित उसकी मोटी परिध के समान अठारह भुजाएँ इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानों आपका पराक्रम जानकर कामदेव ने यन्त्र के समान उसका निर्माण किया है । दैत्यन्दर ! त्रिवली से तरँगायमान उसकी कमर इस प्रकार सुशोभित हो रही हैं, मानों वह भयारत तथा अधीर कामदेव का आरोहन करने के लिए सोपान हो । असुरेन्द्र ! उसके पीन कुचोंतक की वह रोमावली इस प्रकार सुशोभित हो रही हैं, मानों आरोहण करने में आपके भय से कातर कामदेव का स्वेद -प्रवाह हो, उसकी गंभीर दक्षणावर्त नाभि ऐसी लगती हैं, मानों कंदर्प ने स्वयं ही उस सौन्दर्य गृह के ऊपर मुहर लगा दी है ।
 
मेखला से चारों ओर आवेष्टित उस मृगनयनी का जघन बड़ा सुंदर सुशोभित हो रहा है । उसे हम राजा कामयका प्रकारसे (चहरदुवारियों से) गुप्त (सुरक्षित) दुर्गम नगर मानते है । उस कुमारी के वृताकार रोमरहित, कोमल तथा उत्तम उरू इस प्रकार शोभित हो रहे है, मानों कामदेव ने मनुष्यों के निवास के लिए दो रेखों का सन्निवेश किया है । महिषसुरेन्द्र ! उसके अद्धोरनन्त जानुयुगल इस प्रकार सुशोभित हो रहे है, उसकी रचना करने के बाद थके विधाता ने निरूपण करने के लिए अपना करतल ही स्थापित कर दिया हो ।  दैत्येश्वर ! उसकी सुव्रुत्त तथा रोमहीन दोनों जंघाएँ इस प्रकार सुशोभित हो रही हैं, मानो ( दिव्य ) निर्मित की गयी नायिका के रूप के द्वारा सभी लोग पराजित कर दिये गये हैं । विधाता ने प्रयत्न पूर्वक उसके कमलोदर के समान कान्ति वाले दोनों पैरों का निर्माण किया है । उन्होंने उसके उन चरणों के नखरूपी रत्न श्रंखला को इस प्रकार प्रकाशित किया है, मानो वह आकाश में नक्षत्रों की माला हो । दैत्यश्वर ! वह कन्या बड़े और भयानक शस्त्रों को धारण किये हुए है । उसे भली भाँति देखकर भी हम यह न जान सके कि वह कौंन हैं तथा किसकी पुत्री या स्त्री हैं । महासुरेन्द् ! वह स्वर्ग का परित्याग कर भूतल में स्थित श्रेष्ठ रत्न है । आप स्वयं विन्ध्य पर्वत पर जाकर उसे देखे औऱ फिर जो आपकी इच्छा एवं सामर्थ हो वह करें ।”
 
उन दोनों दूतों से कात्यायनी के आकर्षक सौन्दर्य की बात सुनकर महिष ने – ” इस विषय मे कुछ भी विचारना नही है ‘- यह कहकर जाने का निश्चय किया । इस प्रकार मानो महिष का अन्त ही आ गया । मनुष्य के शुभा शुभ को ब्रह्मा ने पहले से ही निर्धारित कर रखा है । जिस व्यक्ति को जहाँ पर या जहां से जिस प्रकार जो कुछ भी शुभा शुभ परिमाण होनेवाला होता है, वह वहाँ ले जाया जाता है या स्वयं चला जाता हैं “।
फिर *महिष ने मुण्ड, नमर, चण्ड, विडाल नेत्र, पिशंग के साथ वाष्कल, उग्रायुद्ध, चिक्षुर और रक्तबीज को आज्ञा दी । वे सभी दानव रण ककर्श भेरियाँ बजाकर स्वर्ग को छोड़ कर उस पर्वत के निकट आ गये और उसके मूल में सेना के दलों का पड़ाव डाल कर युद्ध के लिए तैयार हो गए ।
 

 ततपश्चात महिषासुर ने देवी के पास धौंसे की ध्वनि की भाँति उच्च और गम्भीर ध्वनि में बोलने वाले तथा शत्रुओं की सेनाओं के समूहों का मर्दन करने वाला दानवों के सेनापति मयपुत्र दुंदुभी को भेजा । ब्राह्मण देवता नारदजी ! दुंदुभी ने देवी के पास पहुँच कर आकाश में स्थित होकर उनसे यह वाक्य कहा – हे कुमारी ! मैं महान असुर रम्भ के पुत्र महिष का दूत हूँ । वह युद्धमें अद्वितीय वीर हैं । इसपर कात्यायनी ने दुंदुभी से कहा – ” दैत्यन्द्र ! तुम निडर होकर इधर आओ और रम्भ पुत्र ने जो वचन कहा है, उसे स्वस्थ होकर ठीक-ठीक कहो ।” दुर्गा के इस प्रकार कहने पर दैत्य आकाश से उतर कर पृथ्वी पर आया और सुन्दर आसन पर सुख पूर्वक बैठकर महिष के वचनों को इस प्रकार कहने लगा ।
 
    दुदुंभी बोला – ” देवी ! असुर महिष ने तुम्हें यह अवगत कराया है कि मेरे द्वारा युद्धमें पराजित हुए निर्बल देवतालोग पृय्वी पर भृमण कर रहे है हे बाले ! स्वर्ग, पृथ्वी, वायु मार्ग, पाताल और शंकर आदि देवगण सभी मेरे वश में है । मैं ही इन्द्र, रुद्र एवं सूर्य हूँ तथा सभी लोको का स्वामी हूँ । स्वर्ग, पृथ्वी या रसातल में जीवित रहने की इच्छा वाला ऐसा कोई देव, असुर, भूत या यक्ष योद्धा नहीं हुआ, जो युद्ध में मेरे सामने आ सकता हो ।( और भी सुनो ) पृथ्वी, स्वर्ग या पाताल में जितने भी रत्न है, उन सबको मैने अपने पराक्रम से जीत लिया है और अब वे मेरे पास आ गये हैं ।अतः अबोध बालिके ! तुम कन्या हो और स्त्री रत्नोंमें श्रेष्ठ हो । मैं तुम्हारे लिए इस पर्वत पर आया हूँ । इसलिये मुझ जगतपति को स्वीकार करो । तुम्हारे योग्य सर्वथा समर्थ पति हूँ ।”
 
           पुलस्त्यजी ने कहा – ” उस दैत्य के ऐसा कहने पर दुर्गा जी ने दुंदुभी से कहा – ” असुरदूत ! यह सत्य हैं कि दानव राज महिष पृथ्वीके समर्थ हैं एवं यह भी सत्य है कि उसने युद्ध में देवताओं को जीत लिया है ; किंतु दैत्येश ! हमारे कुल में ( विवाह के विषय मे ) शुल्क नामकी एक प्रथा प्रचलित हैं । यदि महिष आज मुझे वह प्रदान करें तो सत्य रूपमें (सचमुच) मैं उस (महिष) को पतिरूप में स्वीकार कर लूँगी ।”
               इस वाक्य को सुनकर दुंदुभी ने कहा –  (अच्छा ) कमलपतत्राक्षी ! तुम वह शुल्क बतलाओ । महिष तो तुम्हारे लिए अपना सिर भी प्रदान कर सकता हैं ; शुल्क की बात ही क्या, जो यहाँ ही मिल सकता हैं ।
पुलस्त्यजी बोले- दैत्य नायक दुंदुभी के ऐसा कहने पर दुर्गा जी ने उच्च स्वर से गर्जन कर और हँस कर समस्त चराचर के कल्याणार्थ यह वचन कहा — ” दैत्य ! पूर्वजों ने हमारे कुल में जो शुल्क निर्धारित किया है, उसे सुनो।( वह यह है कि ) हमारे कुल में उत्पन्न कन्या को जो बल से युद्ध मे जीतेगा, वही उसका पति होगा । “
 
पुलस्त्यजी ने कहा- ”  देवी की यह बात सुनकर दुंदुभी ने जाकर महिषासुर से इस बात को ज्यों-का- त्यों निवेदित कर दिया । उस महातेजस्वी दैत्य ने सभी देत्यों के साथ ( युद्ध में देवी को पराजित कर उसका पति बनने के लिए ) प्रयाण किया एवं देवी से युद्ध करने की इच्छा से विंध्याचल पर्वत पर पहुँच गया । नारदजी  ! उसके पश्चात सेनापति चिक्षुर नामक दैत्य ने नमर नाम के दैत्य को सेना के आगे चलने का निर्देश दिया, और वह भी महान बली असुर उससे निर्देश पाकर बलशाली चुतुरंगिनी सेना की एक लड़ाकू टुकड़ी को लेकर वेग पूर्वक देवी दुर्गाजी पर धावा बोल दिया ।
 
उसे आते देखकर ब्रह्मा आदि देवताओं ने महादेवी से कहा– — ” अम्बिके ! आप कवचं बाँध ले । उसके बाद देवी ने देवताओं से कहा – ” देवगण ! मैं कवच नहीं बाँधूँगी मेरे सामने ऐसा कौन अधम दानव हैं जो यहाँ युद्ध मे ठहर सके ? जब देवी ने शस्त्र-निवारक कवच न पहना तो उनकी रक्षा के लिए देवताओं ने (पुरवोक्त ) विष्णुपजर स्त्रोत्र पढ़ा । ब्रह्मन ! उससे रक्षित होकर दुर्गा ने समस्त देवताओं के द्वारा अवध्य दानव-श्रेष्ठ महिषासुर को खूब पीड़ित किया । इस प्रकार पहले देव श्रेष्ठ शँकरजी ने बड़े नेत्रों वाली ( कात्यायनी देवी ) से उस वैष्णव पंजर को कहा था, ‘ उसी के प्रभाव से उन्होंने ( देवीने ) भी पैरों से मारकर उस महिषासुर का कचूमर निकाल दिया ।’ द्विज ! इस प्रकार के प्रभाव से युक्त विष्णुपजर समस्त रक्षाकारी ( स्त्रोतों ) में श्रेष्ठ कहा गया हैं । वस्तुतः जिसके चित में चक्रपाणि स्थित हों, युद्ध मे उसके अभिमान को कौन नष्ट कर सकता हैं ।
Story Of Mata Shabari
Story Of Mata Shabari

दैत्य सेनापति नमर और देवी दुर्गा युद्ध, नमर का वध  भाग – 6
 नारदजी ने पूछा – पुलस्त्यजी ! दुर्गा देवी ने सेना एवं वाहनों के सहित  महिषासुर को किस प्रकार मार डाला, इसे आप विस्तार पूर्वक कहें । मेरे मन में यह शंका घर के गयी है कि शस्त्रों के विद्यमान होते हुए भी देवी ने पैरों से उसे क्यों मारा ?
       ( फिर नारद जी के प्रश्न को सुनकर ) पुलस्त्यजी ने कहा — ” नारदजी ! देव युग के आदि में घटित तथा पाप एवं भय को भय को दूर करने वाली इस प्राचीन एवं पवित्र कथा को आप सावधान हो कर सुनिये । एक बार इसी प्रकार पूर्व वर्णित रीति से क्रुद्ध होकर नमर ने भी हाथी, घोड़े औऱ रथों के साथ वेग पूर्वक देवी के ऊपर आक्रमण कर दिया था । फिर देवी ने भी उसे भली भाँति देखा । इसके बाद दैत्य ने अपने धनुष को चढ़ाकर विन्ध्य-पर्वत के ऊपर इस प्रकार से बाण- वर्षा की जैसे आकाशसे बादल (उस पर) धारा-प्रवाह मूसलधार  जल वृष्टि करता हो । उसके बाद उस दैत्य की बाण-वर्षा से पर्वत को सर्वदा ढ़का देखकर देवी को बड़ा क्रोध हुआ औऱ तब उन्होंने वेग पूर्वक झट विशाल धनुष को चढ़ा लिया ।
 
          श्रीदुर्गाजी द्वारा चढ़ाया गया सोने की पीठवाला वह धनुष दानवी-सेना में इस प्रकार चमक उठा, जैसे बादलों में बिजली चमकती हैं । शुभ व्रत वाले श्रीनारदजी ! श्रीदुर्गाजी ने कुछ दैत्यों को बाणों से, कुछ को तलवारों से कुछ को गदा से कुछ को मूसल से औऱ कुछ दैत्यों को ढ़ाल चला कर ही मार डाला । काल के समान देवी के सिंह ने भी अपनी गर्दन के बालों को झाड़ते हुये अकेले ही अनेकों दैत्यों का संहार कर डाला । देवी ने कुछ दैत्यों को वज्र से आहत कर दिया, कुछ दैत्यों के वक्ष:स्थल को शक्ति से फाड़ डाला, कुछ के गर्दन को हल से विदीर्ण कर कुछ को फरसे से काट डाला, कुछ के सिर को दण्ड से फोड़ दिया तथा कुछ देत्यों के शरीर के संधि-स्थानों को चक्र से छिन्न-भिन्न कर दिया । कुछ पहले ही चले गये, कुछ गिर गये, कुछ मुर्छित हो गये औऱ कुछ युद्ध भूमि छोड़ कर भाग गये ।
         भयंकर रूपवाली दुर्गा द्वारा मारे जा रहे दैत्य एवं दानव भय से व्याकुल हो गए तथा वे उन्हें कालरात्रि के समान मानते हुए डर से भाग चले । सेना के अग्र ( प्रधान ) भाग को नष्ट तथा अपने सम्मुख दुर्गा को स्थित देखकर नमर मतवाले हाथी पर चढ़कर आगे आया । उस दानव ने युद्ध में देवी के ऊपर शक्ति से कसकर प्रहार किया एवं सिंह के ऊपर त्रिशूल चलाया । ( किंतु ) देवी ने उन दोनों अस्त्रों को आते देख हुंकार से ही उन्हें भस्म कर डाला । इधर नमर के हाथी ने सूँड़ से सिंह की कमर पकड़ ली ।
 
इस पर सिंह ने तेजी से उछलकर नमर दानव को पंजे से मारकर उसके प्राण ले लिये औऱ हाथी के उपर से उसे नीचे गिरा कर देवी के आगे रख दिया । नारदजी ! देवी कात्यायनी क्रोध से उस दैत्य को मध्य में पकड़ कर तथा बांये हाथ से घुमा कर ढ़ोल के समान बजाने लगी औऱ उसे अपना बाजा बनाकर उन्होंने जोर से अट्टहास किया । उनके हँसने से अनेक प्रकार के अभ्दुत भूत उत्पन्न हो गये ! कोई-कोई भूत व्याघ्र के समान भयंकर मुख वाले थे, किसी की आकृति भेड़िये के समान थी, किसी का मुख घोड़े के तुल्य और किसी का मुख भैसें जैसा एवं किसी का सुकर के समान मुँह था । उनके मुँह चूहे, मुर्गे (कुक्कुट), गाय, बकरा और भेड़ के मुखों के समान थे । कई नाना प्रकार के आयुध धारण किये हुए थे । उनमें कुछ तो समूह बनाकर गाने लगे, कुछ हँसने लगे एवं कुछ देवी की स्तुति करने लगें । देवीने उन भूत गणों के साथ उस दानव-सेना पर आक्रमण कर उसे इस प्रकार तहस-नहस कर दिया, जैसे भारी वज्रके समान ओलोंके गिरने से खेतीका संहार हो जाता है । इस प्रकार सेना के अग्र भाग तथा सेनापति के मारे जाने पर अब सेनापति चिक्षुर देवताओं से भिड़ गया-युद्ध करने लगा ।
 
रथियों में श्रेष्ठ उस दैत्य ने अपने मजबूत धनुष को अपने कानों तक चढ़ा कर उससे बाणों की इस प्रकार वर्षा की जैसे मेघ पृथ्वी पर ( घनघोर ) जल बरसते हैं । परन्तु देवीदुर्गा ने भी सुन्दर पर्वों ( गाँठो ) – वाले अपने बाणों से उन बाणों को काट डाला और फिर सुवर्ण से निर्मित पंख वाले सोलह वाणों को अपने हाथों में ले लिया । उन्होंने क्रुद्ध होकर चार बाणों से उसके चार घोड़ों को औऱ एक सारथी को मार कर एक बाण से उसकी ध्वजा के दो टुकड़े कर दिये । फिर अम्बिके ने एक बाण से उसके बाण सहित धनुष को काट डाला । धनुष कट जाने पर बलवान चिक्षुर ने ढाल और तलवार उठा ली ।

माँ दुर्गाजी का महिषासुर बध और शिवजीमें पादमूल  भाग – 7
 
 चक्षुरदैत्य ढाल औऱ तलवार को जोर लगाकर घूमा रहा था कि देवी ने चार बाणों से उन्हें काट डाला । इस पर उस दैत्य ने शूल ले लिया । महान शूल को घुमा कर वह अम्बिका की ओर इस प्रकार दौड़ा, जैसे वनमें सियार आनन्द मग्न होकर सिंहनी की ओर दौड़ें;  पर देवी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर पाँच बाणों से उस असुर के दोनों हाथों, दोंनो पैरों एवं सिरको गर्दनसे काटकर उडा डाला, जिससे वह असुर मरकर गिर पड़ा । उस सेनापति के मरने पर उग्रास्य नाम का महान असुर तथा करालास्य नाम का दानव ये दोनों तेजीसे उनकी ओर दौड़े तथा वाष्कल, उद्धत, उदग्र, उग्र कार्मुक, दुदर्व्र, दुर्मुख तथा बिडालक्ष-ये तथा अन्य अनेक अत्यंत बली एवं श्रेष्ठ दैत्त्य शस्त्र और अस्त्र लेकर दुर्गाकी ओर दौड़ पड़े ।
  देवी दुर्गा ने उन्हें देखा औऱ वे लीला पूर्वक हाथों में वीणा एवं श्रेष्ठ डमरू लेकर हँसती हुई उन्हें बजाने लगी । देवी उन वाद्यों को ज्यों-ज्यों बजाती जाती थी, त्यों-त्यों सभी भूत भी नाचते औऱ हँसते थे ।
 
अब असुर शस्त्र लेकर महा सरस्वती रूपा दुर्गादेवी के पास जाकर उनपर प्रहार करने लगे । पर परमेश्वरी ने ( तुरंत ) उनके बालों को जोर के साथ पकड़ लिया । उन महासुरों का केश पकड़ कर औऱ फिर सिंह से उछल कर पर्वत-श्रंग पर जाकर जगजननी दुर्गा वीणा-वादन करती हुई मधुपान करने लगीं । तभी देवी ने अपने बाहुदण्डों से सभी असुरों को मार कर उनके घमण्ड को चूर कर दिया । उनके वस्त्र शरीर से खिसक पड़े और वे प्राणरहित हो गए । यह देखकर —-
.”महाबली महिषासुर अपने खुरकेअग्र भागसे, तुण्डसे, पुच्छसे, वक्ष:स्थलसे तथा नि:श्वास-वायुसे देवी के भूतगणों को भगाने लगा । अपने बिजली की कड़क के समान नाद एवं सींगों की नोकसे शेष भूतोंको व्याकुल कर रणक्षेत्र में सिंहको मारने दौड़ा । इससे अम्बिका को बड़ा क्रोध हुआ । फिर वह क्रुद्ध महिष अपने नुकीले सींगों से जल्दी-जल्दी पर्वतों एवं पृथ्वीको विदीर्ण करने लगा । वह समुद्र को क्षुब्द करते तथा मेघों को तितर-बितर करते हुए दुर्गा की ओर दौड़ा । इस पर देवी ने उस दुष्ट को पाश से बाँध दिया, पर वह झटसे मदसे भींगे कपोलोंवाला गजराज बन गया । ( तब ) देवी ने उस गज के शुण्ड का अगला भाग काट डाला । अब उसने पुनः भैसें का रूप धारण कर लिया ‘ महर्षि नारदजी ! उसके बाद देवी ने उसके ऊपर शूल फेंका जो टूट कर पृथ्वी पर गिर पड़ा । ततपश्चात उन्होंने अग्नि से प्राप्त हुई शक्ति फेंकी, किन्तु वह भी टूट कर गिर पड़ी ।’
 
 ” दानव समूह को मारने वाला विष्णु प्रदत चक्र भी फेंके जाने पर व्यर्थ हो गया । देवी ने कुबेर द्वारा दी गयी गदा भी घुमाकर फेंकी, पर वह भी भँग होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी । महिष ने वरूण के पाश को भी अपने सींग, थूथना एवं खुर के प्रहार से विफल कर दिया । फिर कुपित होकर देवी ने यमदण्ड को छोड़ा, पर उसे भी उसने तोड़कर कई खण्ड-खण्ड कर डाला । उसके शरीर पर देवी द्वारा छोड़ा गया इन्द्र का वज्र भी छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर गया । अब ‘ दुर्गाजी सिंह को छोड़कर सहसा महिषासुर की पीठ पर ही चढ़ गयीं । देवी के पीठ पर चढ़ जाने पर भी महिषासुर अपने बल के मद से उछलता रहा । देवी भी अपने मृदुल तथा कोमल चरणों से भींगे मृगचर्म के समान उसकी पीठ को मर्दन करती गयीं । अन्त में देवी द्वारा कुचला जाता हुआ पर्वताकार बलवान महिष बलशून्य हो गया । तब देवी ने अपने शूल से उसकी गर्दन काट दी । ‘ उसके कटे कण्ठ से तुरंत तलवार लिये एक पुरूष निकल पड़ा । उसके निकलते ही देवी ने उसके ह्रदय पर चरण से आघात किया और क्रोध से उसके बालों को समेट कर पकड़ लिया तथा अपनी श्रेष्ठ तलवार से उसका भी सिर काट डाला । “
 
उस समय देत्यों की सेना में हाहाकार मच गया । चण्ड-मुण्ड, मय, तार और असिलोमा आदि दैत्य भवानी के प्रमथ गणों द्वारा प्रताड़ित एवं भय से उद्विगर होकर पाताल में प्रविष्ट हो गये । महर्षि नारदजी ! इधर देवी की विजय को देखकर देवतागण स्तुतियो के द्वारा सम्पूर्ण जगत की आधारभूता, क्रोध मुखी, सुरुपा, नारायणी, ‘ कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे ।’देवताओं और सिद्धों द्वारा स्तुति की जाती हुई दुर्गा ने ” मैं आप देवताओं के श्रेय के लिये पुनःआविभूर्त होऊँगी ‘—ऐसा कहकर शिवजी के पादमूल में लीन हो गयीं ।”
 
॥ मातेश्वरी भगवती माँ दुर्गाय नमो नमः ॥
                   । भगवती माँ दुर्गा कथा समाप्त ।         
 
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