जड़भरत और राजा रहूगण की कथा Story of Jad Bharat and King Rahugan


Story of Jad Bharat and King Rahugan


Hindu Dharm Main Sanskaro Ka Kya Mahatv Hain
Hindu Dharm Main Sanskaro Ka Kya Mahatv Hain

जड़ भरत जी महाराज के तीन जन्मों का वर्णन श्रीमद भागवत पुराण में आया है। भरत जी की माँ काली ने रक्षा की थी। फिर भरत जी महाराज अब यहाँ से भी आगे चल दिए। एक बार सिन्धुसौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर सवार होकर कपिल भगवान के आश्रम पर जा रहा था।

मार्ग में उन्हें पालकी उड़ाने वाले एक कहार की कमी महसूस हुई। जब सेवक कहार की खोज करने निकले तो उन्हें यही भरत जी मिल गए। और इन्हें पकड़कर पालकी उठाने में लगा दिया। वे बिना कुछ बोले ही चुपचाप पालकी को उठाकर चलने लगे।

अब संत की अपनी मस्ती होती है। कभी तो भरत जी महाराज तेज चलते, कभी धीरे चलते। इस प्रकार से राजा की पालकी हिलने डुलने लगी। राजा रहूगण ने पालकी उठाने वालों से कहा—‘अरे कहारों! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो ?’

कहारों ने सोचा अगर हमने ये नही बताया की जो नया पालकी उठाने वाला है उसके कारण सब गड़बड़ हो रही है तो राजा हमे जरूर दंड देगा। उन्होंने राजा से कहा की- ‘महाराज! अभी नया कहार पालकी में लगाया है जो कभी धीरे चलता है और कभी जल्दी। हम लोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’।

राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होने वाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया जाय तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया।

राजा गुस्से में कहने लगा – “बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।’

ऐसा सुनकर भी भरत जी ने  राजा का कुछ भी बुरा न माना। और चुपचाप पालकी को लेकर चलते रहे। लेकिन भरत जी महाराज अब भी अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। संत जान बताते हैं की चलते चलते रस्ते में एक लंबी चींटियों की लाइन भरत जी को दिखाई दी। कहीं चींटियों पर पैर न पड़ जाये उन्होंने एक छोटी सी छलांग लगाई। और जैसे ही छलांग लगाई तो राजा का सर पालकी से टकराया।

और राजा गुस्से से आग बबुला हो गया। राजा कहता है “तू जीते जी मरे के सामान है।  तू सर्वथा प्रमादी है। तुझसे ये पालकी का भार नही उठाया जा रहा है। जैसे यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे”। अपने अभिमान के कारण राजा अनाप शनाप बकने लगा।

भरत जी ने सोचा की एक तो ये मुझसे सेवा करवा रहा है और दूसरा गाली भी दे रहा है। तो मैं इसे थोड़ा ज्ञान दे दूं।  जड भरत ने कहा—राजन्! तुमने जो कुछ कहा वह एकदम सच है। लेकिन यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्म के लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते।

आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक—ये सब शरीर को लगते हैं इसका आत्मा से कोई लेना देना नहीं है।  भूख और प्यास प्राणों को लगती है। शोक और मोह मन में होता है।

तुम राजा हो और मैं प्रजा। प्रजा का काम है वो राजा की आज्ञा का पालन करे लेकिन तुम सदा के लिए राजा नही रहोगे और मैं सदा के लिए प्रजा नही रहूँगा? तुम कह रहे हो की मैं पागल हूँ और मेरा इलाज तुम कर दोगे। मुझे शिक्षा देना ऐसे होगा जैसे कोई किसी वस्तु को पीस दे और तुम आकर उसे दोबारा पीस दो। मैं तो पहले ही पिसा हुआ हूँ तू मुझे क्या पीसेगा?

जब जड भरत यथार्थ तत्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये। फिर राजा ने सोचा ये कोई ज्ञानी पुरुष है और राजा  पालकी से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा।

आप कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं ? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है ? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्वमूर्ति भगवान् कपिलजी ही तो नहीं हैं ?

मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेवजी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राम्हण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ। मेरे द्वारा किसी ब्राह्मण का अपमान न हो जाये। आप कृपा करके बताइये की आप कौन हैं।

मैंने आप जैसे संत-पुरुष का अपमान किया। मैंने आपकी अवज्ञा की। अब आप ऐसी कृपा दृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञा रूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ।

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संत भरत कहते हैं की यह मायामय मन संसार चक्र में छलने वाला है।  जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही संसार में बंधने का और मोक्ष पद का कारण बताते हैं । विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देता है।

जिस तरह घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुंएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है—उसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्व में लीन हो जाता है।

पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार—ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं । गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मल त्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार—ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है।

कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं । ये मन की ग्यारह वृतियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है।

जब तक मनुष्य ज्ञान के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधि रूप मन को संसार-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है।

यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारी उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।

राजा रहूगण ने कहा“मैं आपको नमस्कार करता हूँ।” जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमान रूप विषैले सर्प ने डस लिया है,

आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं। आपने कहा की भार नाम की अगर कोई चीज है तो उसका सम्बन्ध केवल देह तक ही सिमित है उसका आत्मा से कोई सम्बन्ध नही है। ये बात मेरी समझ में नही आई है। आपके ऊपर पालकी रखी हुई हुई है तो आपको भार लगेगा , और यदि आपके शरीर को भार का अनुभव होगा तो उसे आत्मा भी अनुभव करती होगी ना?

फिर राजा कहता है की तुमने कहा की सुख दुःख का अनुभव आत्मा नही करती है लेकिन मैंने युद्ध में खुद को थकते हुए देखा है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ।  एक पात्र(बर्तन) है, बर्तन में पानी है और पानी में चावल है। अगर हम उसे अग्नि पर चढ़ाएंगे तो पहले अग्नि पात्र को गर्म करेगी फिर पानी गर्म होगा और फिर चावल गल जायेगा। क्योकि सभी एक दूसरे के संपर्क में है।

आप समझे की इस देह का सम्बन्ध इन्द्रियों से है, इन्द्रियों का सम्बन्ध मन से है, और मन का सम्बन्ध बुद्धि और बुद्धि का सम्बन्ध आत्मा से है। एक दूसरे के संपर्क होने के कारण सुख दुःख का अनुभव आत्मा भी करती होगी ना?

राजा की इस बात को सुनकर संत भरत हँसे और बोले-“राजन! एक ओर तू तत्व को जानना चाहता है और दूसरी ओर इस व्यवहार जगत को सत्य मान बैठा है। जैसे तूने अपनी बात रखी है , इसी तरह से मैं भी अपनी बात रख देता हूँ।

तूने कहा की एक बर्तन है, बर्तन में जल है, जल में चावल हैं, और जब हम अग्नि पर उसे चढ़ाते हैं तो पहले अग्नि उस पात्र को गर्म करती है, फिर पानी गर्म होता है और फिर चावल गल जाते हैं। लेकिन अगर उस पात्र में चावल की जगह एक पत्थर का टुकड़ा डाल दें तो क्या वह अग्नि उस पत्थर को जल सकती है? गला सकती है?

राजा ने कहा की ना ही जल सकती है और ना ही गला सकती है।

भरत जी बोले इसी प्रकार आत्मा भी निर्लेप है, आत्मा को कोई सुख दुःख का अनुभव नही होता। ना ही इस पर जल का प्रभाव है और ना ही अग्नि का। ना अस्त्र का और ना ही शस्त्र का। इस आत्मा का वस्त्र ये देह है।

इस प्रकार जड़ भरत जी ने बड़ा ही सुंदर ज्ञान राजा रहूगण को दिया है। इसके बाद भरत जी ने भवाटवी का वर्णन किया है जिसका श्रीमद भगवत पुराण में सुंदर वर्णन है। अंत में भरत जी कहते हैं की अपने मन को संसार से हटाकर भगवान के चरणों में लगाओ।

ये मन काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ, परिवार और विषयों आदि में फसाये रहता है। अब तुम प्रजा को दण्ड देने का काम छोड़कर समस्त प्राणियों के सुह्रद् हो जाओ और विषयों में अनासक्त होकर भगवत्सेवा से तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञान रूप खड्ग लेकर इस मार्ग को पार कर लो ।

राजा रहूगण ने कहा- : आपके चरणकमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावों को भगवान् विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सारा कुतर्क मूलक अज्ञान नष्ट हो गया है । इस तरह से जड़ भरत ने इन्हें ज्ञान दिया । और राजा रहूगण उस ज्ञान को पाकर इस प्रकार तृप्त हो गए जैसे कोई निर्धन धन पाकर तृप्त हो जाता है ।

 
।।  राधे राधे श्याम मिलादे  ।।
 
 प्रेम से बोलिये जय जय श्री राधे

Aaadhyatmik Prerak Prasang
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