अग्नि की उत्पत्ति कैसे हुई? How Fire Originated?


How Fire Originated?


क्या आप जानते है अग्नि की उत्पत्ति कैसे हुई?

अग्नि की उत्पत्ति कथा तथा वेद एवं पुराणों में महात्म्य

एक समय पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे देव! आप जिस अग्नि देव की उपासना करते हैं उस देव के बारे में कुछ परिचय दीजिये। शिवजी ने उत्तर देना स्वीकार किया। तब पार्वती ने पूछा कि यह अग्नि किस महिने, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र त तथा लग्न में उत्पन्न हुई है।

 श्री महादेवजी ने कहा-आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की आध्धी रात्रि में मीन लग्न की चतुर्दशी तिथि में शनिवार तथा रोहिणी नक्षत्र में ऊपर मुख किये हुए सर्वप्रथम पाताल से दृष्ट होती हुई अगोचर नाम्धारी यह अग्नि प्रगट हुई। उस महान अग्नि के माता-पिता कौन है? गौत्र क्या है? तथा कितनी जिह्वा से प्रगट होती है? 

Aaadhyatmik Prerak Prasang
Aaadhyatmik Prerak Prasang

 

 श्री महादेवजी ने कहा-वन से उत्पन्न हुई सूखी आम्रादि की समिधा लकड़ी ही इस अग्नि देव की माता है क्योंकि लकड़ी में स्वाभाविक रूप से अग्नि रहती है , जलाने पर अग्नि के संयोग से अग्नि प्रगट होती है,  अग्निदेव अरणस के गर्भ से ही प्रगट होती है इसलिये लकड़ी ही माता है तथा वन को उत्पन्न करने वाला जल होता है इसलिये जल ही इसका पिता है। शाण्डिल्य ही जिसका गोत्र है। ऐसे गोत्र तथा विशेषणों वाली वनस्पति की पुत्री यह अग्नि देव इस धरती पर प्रगट हुई जो तेजोमय होकर सभी को प्रकाशित करती हुई उष्णता प्रदान करती है। 

इस प्रत्यक्ष अग्नि देव के अग्निष्टोमादि चार प्रधान  यज्ञ जो चारों वेदों में वर्णित है वही शृंग अर्थात् श्रेष्ठता है। इस महादेव अग्नि के भूत, भविष्य वर्तमान ये तीन चरण हैं। इन तीनों कालों में यह विद्यमान रहती है। इह लौकिक पार लौकिक इन दो तरह की ऊंचाइयों को छूनेवाली यह परम अग्नि सात वारों में सामान्य रूप से हवन करने योग्य है क्योंकि ग्रह नक्षत्रों से यह उपर है इसलिये इन सातों हाथों से यह आहुति ग्रहण कर लेती है तथा मृत्युलोक, स्वर्ग लोक पाताल लोक इन तीनों लोकों में ही बराबर बनी रहती है

अर्थात् तीनों लोक इस अग्नि से ही बंध्धे हुऐ स्थिर है। जिस प्रकार से मदमस्त वृषभ ध्वनि करता है उसी प्रकार से जब यह घृतादि आहुति से जब यह अग्नि प्रसन्न हो जाती है तो यह भी दिव्य ध्वनि करती है। इन विशेषणों से युक्त अग्नि देवता महान कल्याणकारी रूप धारण करके हमारे मृत्यु लोकस्थ प्राणियों में प्रवेश करे जिससे हम तेजस्वी हो सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। 

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जिस अग्नि ने उदर में समाहित कर रखा है, वह विश्वरूपा अग्नि देवी है जिसके उदर में प्रलयकालीन में सभी जीव शयन करते हैं तथा उत्पत्ति काल में भी सभी ओर से अग्नि वेष्टित है। उसकी ही परछाया से जगत आच्छादित है तथा जैसा गीता में कहा है अहं वैश्वानरो भूत्वा‘‘ अर्थात् यह अग्नि ही सर्वोपरि देव है। जिस अग्नि के बारह आदित्य यानि सूर्य ही बारह नेत्र है। उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत को देखती है। सात इनकी जिह्वाएं जैसे काली,  कराली, मनोजवा, सुलोहिता , सुध्धूम्रवर्णा,  स्फुलिंगिनी , विश्वरूपी  इन सातों जिह्वाओं द्वारा ही सम्पूर्ण आहुति को ग्रहण करती है। 

इस महान अग्नि देव के ये सात प्रिय भोजन सामग्री है। जिसमें सर्व प्रथम घी, , दूसरा यव , तीसरा तिल, चौथा दही, पांचवां खीर, छठा श्री खंड, सातवीं मिठाई यही हवनीय सामग्री है जिसे अग्नि देव अति आनन्द से सातों जिह्वाओं द्वारा ग्रहण करते है।

भजन करने वाले ऋत्विक जन की यह अग्नि चाहे ऊध्ध्र्वमुखी हो चाहे अध्धोमुखी हो अथवा सामने मुख वाली हो हर स्थिति में सहायता ही करती है तथा इस अग्निदेव में प्रेम पूर्वक ‘‘स्वाहा‘‘ कहकर दी हुई मिष्ठान्नादि आहुति महा विष्णु के मुख में प्रवेश करती है अर्थात् महा विष्णु प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं जिससे सम्पूर्ण देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों देवता तृप्त हो जाते हैं। इन्हीं देवों को प्रसन्न करने का एक मात्र साधन यही है।

पुराणों में अग्नि का महात्म्य 

अग्निदेवता यज्ञ के प्रधान अंग हैं। ये सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले हैं। सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी रत्नों को यही धारण करते हैं।

 

वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है। अत: यह कहा जा सकता है कि विश्व-साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है। ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार-बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है।

आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं। युद्ध में सेनापति का काम करते हैं इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था।

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पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा हैं। ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो आहुति दी जाती है, वह इन्हीं के द्वारा देवताओं तक पहुँचती है। केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं।

 इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूँ, जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं। पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है। उसी प्रकार अग्निदेव भी यजमान की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

अग्निदेव की सात जिह्वाएँ बतायी गयी हैं। उन जिह्वाओं के नाम : – काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरुचि हैं।

पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए। इनके पुत्र-पौत्रों की संख्या उनंचास है। भगवान कार्तिकेय को अग्निदेवता का भी पुत्र माना गया है। स्वारोचिष नामक द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं। अग्नि नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं। प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका मुख्य तीर्थ है। इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय, श्राद्धदेव तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।

अग्निदेव की कृपा के पुराणों में अनेक दृष्टान्त प्राप्त होते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। महर्षि वेद के शिष्य उत्तंक ने अपनी शिक्षा पूर्ण होने पर आचार्य दम्पति से गुरु दक्षिणा माँगने का निवेदन किया। गुरु पत्नी ने उनसे महाराज पौष्य की पत्नी का कुण्डल माँगा। उत्तंक ने महाराज के पास पहुँचकर उनकी आज्ञा से महारानी से कुण्डल प्राप्त किया। 

रानी ने कुण्डल देकर उन्हें सतर्क किया कि आप इन कुण्डलों को सावधानी से ले जाइयेगा, नहीं तो तक्षक नाग कुण्डल आप से छीन लेगा। मार्ग में जब उत्तंक एक जलाशय के किनारे कुण्डलों को रखकर सन्ध्या करने लगे तो तक्षक कुण्डलों को लेकर पाताल में चला गया। 

अग्निदेव की कृपा से ही उत्तंक दुबारा कुण्डल प्राप्त करके गुरु पत्नी को प्रदान कर पाये थे। अग्निदेव ने ही अपनी ब्रह्मचारी भक्त उपकोशल को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था।

अग्नि की प्रार्थना उपासना से यजमान धन, धान्य, पशु आदि समृद्धि प्राप्त करता है। उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा एवं परिवार आदि की वृद्धि होती है।

अग्निदेव का बीजमन्त्र रं तथा मुख्य मन्त्र रं वह्निचैतन्याय नम: है।

ऋग्वेद के अनुसार,अग्निदेव अपने यजमान पर वैसे ही कृपा करते हैं, जैसे राजा सर्वगुणसम्पन्न वीर पुरुष का सम्मान करता है। एक बार अग्नि अपने हाथों में अन्न धारण करके गुफा में बैठ गए। अत: सब देवता बहुत भयभीत हुए। अमर देवताओं ने अग्नि का महत्व ठीक से नहीं पहचाना था। 

वे थके पैरों से चलते हुए ध्यान में लगे हुए अग्नि के पास पहुँचे। मरुतों ने तीन वर्षों तक अग्नि की स्तुति की। अंगिरा ने मंत्रों द्वारा अग्नि की स्तुति तथा पणि नामक असुर को नाद से ही नष्ट कर डाला। देवताओं ने जांघ के बल बैठकर अग्निदेव की पूजा की। अंगिरा ने यज्ञाग्नि धारण करके अग्नि को ही साधना का लक्ष्य बनाया।

तदनन्तर आकाश में ज्योतिस्वरूप सूर्य और ध्वजस्वरूप किरणों की प्राप्ति हुई। देवताओं ने अग्नि में अवस्थित इक्कीस गूढ़ पद प्राप्त कर अपनी रक्षा की। अग्नि और सोम ने युद्ध में बृसय की सन्तान नष्ट कर डाली तथा पणि की गौएं हर लीं। अग्नि के अश्वों का नाम रोहित तथा रथ का नाम धूमकेतु है।

महाभारत के अनुसार

 देवताओं को जब पार्वती से शाप मिला था कि वे सब सन्तानहीन रहेंगे, तब अग्निदेव वहाँ पर नहीं थे। कालान्तर में विद्रोहियों को मारने के लिए किसी देवपुत्र की आवश्यकता हुई। अत: देवताओं ने अग्नि की खोज आरम्भ की। अग्निदेव जल में छिपे हुए थे। मेढ़क ने उनका निवास स्थान देवताओं को बताया। अत: अग्निदेव ने रुष्ट होकर उसे जिह्वा न होने का शाप दिया। देवताओं ने कहा कि वह फिर भी बोल पायेगा। अग्निदेव किसी दूसरी जगह पर जाकर छिप गए। 

हाथी ने देवताओं से कहा-अश्वत्थ (सूर्य का एक नाम) अग्नि रूप है। अग्नि ने उसे भी उल्टी जिह्वा वाला कर दिया। इसी प्रकार तोते ने शमी में छिपे अग्नि का पता बताया तो वह भी शापवश उल्टी जिह्वा वाला हो गया। शमी में देवताओं ने अग्नि के दर्शन करके तारक के वध के निमित्त पुत्र उत्पन्न करने को कहा। अग्नि देव शिव के वीर्य का गंगा में आधान करके कार्तिकेय के जन्म के निमित्त बने।

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भृगु पत्नी पुलोमा का पहले राक्षस पुलोमन से विवाह हुआ था। जब भृगु अनुपस्थित थे, वह पुलोमा को लेने आया तो उसने यज्ञाग्नि से कहा कि वह उसकी है या भृगु की भार्या। उसने उत्तर दिया कि यह सत्य है कि उसका प्रथम वरण उसने (राक्षस) ही किया था, लेकिन अब वह भृगु की पत्नी है। 

जब पुलोमन उसे बलपूर्वक ले जा रहा था, उसके गर्भ से ‘च्यवन’ गिर गए और पुलोमन भस्म हो गया। उसके अश्रुओं से ब्रह्मा ने ‘वसुधारा नदी’ का निर्माण किया। भृगु ने अग्नि को शाप दिया कि तू हर पदार्थ का भक्षण करेगी। शाप से पीड़ित अग्नि ने यज्ञ आहुतियों से अपने को विलग कर लिया, जिससे प्राणियों में हताशा व्याप्त हो गई। 

ब्रह्मा ने उसे आश्वासन दिया कि वह पूर्ववत् पवित्र मानी जाएगी। सिर्फ़ मांसाहारी जीवों की उदरस्थ पाचक अग्नि को छोड़कर उसकी लपटें सर्व भक्षण में समर्थ होंगी। अंगिरस ने अग्नि से अनुनय किया था कि वह उसे अपना प्रथम पुत्र घोषित करें, क्योंकि ब्रह्मा द्वारा नई अग्नि स्रजित करने का भ्रम फैल गया था। अंगिरस से लेकर बृहस्पति के माध्यम से अन्य ऋषिगण अग्नि से संबद्ध रहे हैं।

हरिवंश पुराण के अनुसार

असुरों के द्वारा देवताओं की पराजय को देखकर अग्नि ने असुरों को मार डालने का निश्चय किया। वे स्वर्गलोक तक फैली हुई ज्वाला से दानवों की दग्ध करने लगे। मय तथा शंबरासुर ने माया द्वारा वर्षा करके अग्नि को मंद करने का प्रयास किया, किन्तु बृहस्पति ने उनकी आराधना करके उन्हें तेजस्वी रहने की प्रेरणा दी। फलत: असुरों की माया नष्ट हो गई।

जातवेदस् नामक अग्नि का एक भाई था। वह हव्यवाहक (यज्ञ-सामग्री लाने वाला) था। दिति-पुत्र (मधु) ने देवताओं के देखते-देखते ही उसे मार डाला। अग्नि गंगाजल में आ छिपा। देवता जड़वत् हो गए। अग्नि के बिना जीना कठिन लगा तो वे सब उसे खोजते हुए गंगाजल में पहुँचे। अग्नि ने कहा, भाई की रक्षा नहीं हुई, मेरी होगी, यह कैसे सम्भव है? देवताओं ने उसे यज्ञ में भाग देना आरम्भ किया। अग्नि ने पूर्ववत् स्वर्गलोक तथा भूलोक में निवास आरम्भ कर दिया। देवताओं ने जहाँ अग्नि प्रतिष्ठा की, वह स्थान अग्नितीर्थ कहलाया।

दक्ष की कन्या (स्वाहा) का विवाह अग्नि (हव्यवाहक) से हुआ। बहुत समय तक वह नि:सन्तान रही। उन्हीं दिनों तारक से त्रस्त देवताओं ने अग्नि को सन्देशवाहक बनाकर शिव के पास भेजा। शिव से देवता ऐसा वीर पुत्र चाहते थे, जो कि तारक का वध कर सके। 

पत्नी के पास जाने में संकोच करने वाले अग्नि ने तोते का रूप धारण किया और एकान्तविलासी शिव-पार्वती की खिड़की पर जा बैठा। शिव ने उसे देखते ही पहचान लिया तथा उसके बिना बताये ही देवताओं की इच्छा जानकर शिव ने उसके मुँह में सारा वीर्य उड़ेल दिया। शुक (अग्नि) इतने वीर्य को नहीं सम्भाल पाए। 

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उसने वह गंगा के किनारे कृत्तिकाओं में डाल दिया, जिनसे कार्तिकेय का जन्म हुआ। थोड़ा-सा बचा हुआ वीर्य वह पत्नी के पास ले गया। उसे दो भागों में बाँटकर स्वाहा को प्रदान किया, अत: उसने (स्वाहा ने) दो शिशुओं को जन्म दिया। पुत्र का नाम सुवर्ण तथा कन्या का नाम सुवर्णा रखा गया। मिश्र वीर्य सन्तान होने के कारण वे दोनों व्यभिचार दोष से दूषित हो गए।

 सुवर्णा असुरों की प्रियाओं का रूप बनाकर असुरों के साथ घूमती थी तथा सुवर्ण देवताओं का रूप धारण करके उनकी पत्नियों को ठगता था। सुर तथा असुरों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने दोनों को सर्वगामी होने का शाप दिया। ब्रह्मा के आदेश पर अग्नि ने गोमती नदी के तट पर, शिवाराधना से शिव को प्रसन्न कर दोनों को शापमुक्त करवाया। वह स्थान तपोवन कहलाया।

अग्नि का सनातन धर्म में महत्त्व 

“अग्नि-सूक्त” 

अग्नि-सूक्त ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है 

इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र है 

इसके देवता “अग्नि” हैं  

इसका छन्द “गायत्री-छन्द” है ।

इस सूक्त का स्वर “षड्जकृ” है।

गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं। इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का छन्द होता है।

अग्नि-सूक्त में कुल नौ मन्त्र है ।

संख्या की दृष्टि से सम्पूर्ण वैदिक संस्कृत में इऩ्द्र (250) के बाद अग्नि (200) का ही स्थान है , किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है ।

स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है । सामूहिक रूप से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है ।

अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है। इनका पृथ्वीलोक में प्रमुख स्थान है।

अग्नि का स्वरूप

अग्नि शब्द “अगि गतौ” (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है । गति के तीन अर्थ हैंः ज्ञान, गमन और प्राप्ति।

इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है।

अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता हैः”अग्निर्वै सर्वा देवता।” 

(ऐतरेय-ब्राह्मण—1.1, शतपथ 1.4.4.10) 

अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है। अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा हैः “अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा ।” (शतपथ-ब्राह्मणः–14.3.2.5)

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निरुक्त

आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः

(क) “अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।” 

मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।

(ख) “अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।” 

यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।

(ग) “अङ्गं नयति सन्नममानः ।” 

अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।

(घ) “अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति ।” 

निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।

(ङ) त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।” 

शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से “अ”, अञ्जू से या दह् से “ग” और णीञ् से “नी” लेकर बना है (निरुक्तः—7.4.15)

कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है। याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैंः 

गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि । 

“गार्हपत्याग्नि” सदैव प्रज्वलित रहती है । शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता।

फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है ।

अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है ।

(1.) अग्नि का रूप 

अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है”घृतपृष्ठ”। 

इसका मुख घृत से युक्त हैः–“घृतमुख”। इसकी जिह्वा द्युतिमान् है। दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान है। केश और दाढी भूरे रंग के हैं। जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है। इसके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं। इसके नेत्र घृतयुक्त हैंः “घृतम् में चक्षुः।” इसका रथ सुनहरा और चमकदार है। उसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं। अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं। वह अपने उपासकों का सदैव सहायक होता है।

(2.) अग्नि का जन्म

अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है। यह अपने आप से उत्पन्न होता है। अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होता है । इसके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है। इसका अभिप्राय है कि अग्नि का जन्म अग्नि से ही हुआ है। प्रकृति के मूल में अग्नि (Energy) है। ऋग्वेद के “पुरुष-सूक्त” में अग्नि की उत्पत्ति “विराट्-पुरुष” के मुख से बताई गई हैः

“मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च।”

 (3.) भोजन

अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है । “आज्य” उसका प्रिय पेय पदार्थ है । यह यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करता है।

(4.) अग्नि कविक्रतु है 

अग्नि कवि तुल्य है। वह अपना कार्य विचारपूर्वक करता है। कवि का अर्थ हैः क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी। वह ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी है। उसमें अन्तर्दृष्टि है। ऐसा व्यक्ति ही सुखी होता हैः

“अग्निर्होता कविक्रतुः”  (ऋग्वेदः—1.1.5)

(5.) गमन

अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है । विद्युत् रथ पर सवार होकर चलता है । जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है । वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है , जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है ।

(6.) अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक है

अग्नि रोग-शोक , पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं। वह व्यक्ति पराजित नहीं होता “देवम् अमीवचातनम्” 

(ऋग्वेदः–1.12.7) 

और “प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः ।” (यजुर्वेदः–1.7)

(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध

यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। उसे यज्ञ का “ऋत्विक्” कहा जाता है। वह “पुरोहित” और “होता” है। वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता हैः “अग्निमीऴे पुरोहितम्।” (ऋग्वेदः–1.1.1)

(8.) देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध

अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं । मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि अपनी ऊर्जाएँ फैलाए हुए हैं। अश्विनी प्राण-अपान वायु है। इससे ही मानव जीवन चलता है।

इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं। अग्नि वायु का मित्र है। जब अग्नि प्रदीप्त होकर जलती है, तब वायु उसका साथ देता हैः “आदस्य वातो अनु वाति शोचिः।” (ऋग्वेदः–1.148.4)

(9.) मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध

अग्नि मनुष्य का रक्षक पिता हैः—“स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव” 

(ऋग्वेदः–1.1.9) उसे दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है।

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(10.) पशुओं से तुलना

यह आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होती है। यह हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहती है। यह उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करता हैः “हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः ” 

(ऋग्वेदः–1.65.5)

(11.) अग्नि अतिथि है

अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहता है और सत्यनिष्ठा से रक्षा करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी हैं, वह उसकी रक्षा करता है। यह अतिथि के समान इस शरीर में रहता है, जब उसकी इच्छा होती है, प्रस्थान कर जाता हैः–“अतिथिं मानुषाणाम् ” (ऋग्वेदः–1.127.8)

(12.) अग्नि अमृत है 

संसार नश्वर है। इसमें अग्नि ही अजर-अमर है। यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है। अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है। जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता हैः

“विश्वास्यामृत भोजन” 

(ऋग्वेदः—1.44.5)

(13.) अग्नि के तीन शरीर

अग्नि के तीन शरीर हैः स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर। हमारा अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला शरीर स्थूल शरीर है। मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है। आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर हैः

“तिस्र उ ते तन्वो देववाता”

(ऋग्वेदः–3.20.2)

अग्नि-सूक्त के मन्त्र 

(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम् ।।

हम अग्निदेव की स्तुति  करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), 

देवता (अनुदान देने वाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवो का आवाहन करने वाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥1॥

(2.) ॐ  अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत स देवाँ एह वक्षति ।।

जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥2॥

(3.) ॐ  अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे यशसं वीरवत्तमम् ।।

(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥3॥

(4.) ॐ  अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि स इद् देवेषु गच्छति ।।

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥4॥

(5.) ॐ  अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः देवो देवेभिरागमत् ।।

हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥5॥

(6.) ॐ  यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।

Hindi Katha Bhajan Youtube
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हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥6॥

(7.) ॐ  उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् मनो भरन्त एमसि ।।

हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥7॥

(8.) ॐ  राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् वर्धमानं स्वे दमे ।।

हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥8॥

(9.) ॐ  स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपायनो भव सचस्वा नः स्वस्तये ।।

(ऋग्वेदः–1.1.1–9)

हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥9॥


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