समर्थ स्वामी रामदास जी का जीवन परिचय Guru Samarth Swami Ramdas Ji


Guru Samarth Swami Ramdas ji


Shri Ram Ji Ki Barat
Shri Ram Ji Ki Barat

समर्थ स्वामी रामदास जी का जीवन परिचय

एक दिन प्रभात काल में कुछ ब्राह्मण और एक विशाल फौज के लेकर शिवाजी महाराज अपने गुरुदेव समर्थ स्वामी रामदास के चरणों में दर्शन व सत्संग के हेतु पहुँचे। संत-सानिध्य में घण्टे बीत गये इसका पता ही न रहा। दोपहर के भोजन का समय हो गया। आखिर शिवाजी उठे। श्रीचरणों में प्रणाम किया और विदा माँगी। समर्थ ने कहाः “सब लोग भूखे हैं। भोजन करके जाओ।” Guru Samarth Swami Ramdas Ji
 

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शिवजी भीतर सोचने लगेः “इतनी बड़ी फौज का भोजन कोई भी पूर्व आयोजन के बिना कैसे होगा ? समय भी नहीं है और सीधा-सामान भी नहीं है।” स्वामी समर्थ ने अपने शिष्य कल्याण गोसांई को भोजन का प्रबन्ध करने की आज्ञा दे दी। वह भी विस्मित नयनों से गुरुदेव के मुखमण्डल को देखता ही रह गया। पूर्व सूचना के बिना इतने सारे लोगों की रसोई बनाई नहीं थी।

स्वामीश्री उन लोगों की उलझी हुई निगाहें समझ गये और बोलेः “वत्स ! वह देख। पर्वत में जो बड़ा पत्थर खड़ा दिखता है न, उसको हटाना। एक गुफा का द्वार खुलेगा। उस गुफा में सब माल तैयार है।”

कल्याण गोसांई ने जाकर पत्थर को हटाया तो गुफा के भीतर गरमा गरम विभिन्न पकवान व व्यञ्जनों के भरे खमूचे देखे। प्रकाश के लिए जगह-जगह पर मशालें जल रही थीं। शिवाजी महाराज सहित सब लोग दंग रह गये। यथेष्ट भोजन हुआ। फिर स्वामी जी के समक्ष शिवाजी महाराज ने पूछाः “प्रभो ! ऐसे अरण्य में इतने सारे लोगों के भोजन की व्यवस्था आपने एकदम कैसे कर दी? कृपा करके अपनी यह लीला हमें समझाओ, गुरुदेव !” मंद-मंद मधुर स्मित के साथ समर्थ ने कहा: “इसका रहस्य जाकर तुकोबा से पूछना। वे बताएँगे।”

कुछ दिन बाद दोपहर अपनी लम्बी चौड़ी फौज के साथ शिवाजी महाराज संतवर्य तुकाराम जी महाराज के दर्शन करने देहुगाँव गये। अनुचर के द्वारा संदेशा भेजा कि, “मै शिवाजी, आपके दर्शन करने आया हूँ। कृपया आज्ञा दीजिये।” 

महाराज ने कहलवायाः “दोपहर का समय है और भोजन तैयार है। पहले आप सब लोग भोजन कर लो, बाद में दर्शन करके जाना। अपने आदमियों को भेजो। पका हुआ भोजन, स्वयंपाकी ब्राह्मणों के लिए कच्चा सीधा और घोड़ों के लिए दाना पानी यहाँ से ले जायें।”
प्रत्युत्तर सुनकर शिवाजी विस्मित हो गये। तुकाराम जी का घर देखो तो टूटा-फूटा झोपड़ा। शरीर पर वस्त्र का ठिकाना नहीं। भजन करने के लिए मंजीरे भी पत्थर के। यह सब ध्यान में रखते हुए शिवाजी ने दो आदमियों से कहाः “वहाँ जाओ और महाराज श्री जो कुछ दें  प्रसाद समझकर ले आओ।”

शिवाजी के आगमन में विलम्ब होता देखकर तुकाराम महाराज ने रिद्धि-सिद्धि योग के बल से इन्द्रयाणी के तीर पर एक विशाल मंडप खड़ा कर दिया। अनेक प्रकार के व्यञ्जन व पकवान तैयार हो गये। फिर एक गाड़ी में कच्चा सीधा और घोड़ों के लिए दाना पानी भरवाकर शिष्य को भेजा और कहा कि जिसको जो सामान चाहिए वह देना और बाकी के सब लोगों को भोजन के लिए यहाँ ले आना।

शिवाजी अपने पूरे मंडल के साथ आये। देखा तो विशाल भव्य मंडप खड़ा है। जगह-जगह पर सुहावने परदे, आराम स्थान, भोजनालय, पानी के प्याऊ, जाति के मुताबिक भोजन की अलग अलग व्यवस्था। यह सब रचना देखकर शिवाजी आश्चर्य से मुग्ध हो गये। भोजनोपरान्त थोड़ा विश्राम करके तुकाराम महाराज के दर्शन करने गये। 

टूटे-फूटे बरामदे में बैठकर भजन करते हुए संतश्री को प्रणाम करके बैठे। फिर पूछाः
“महाराज जी ! हमारे गुरुदेव स्वामी समर्थ के यहाँ भी भोजन का ऐसा सुन्दर प्रबन्ध हुआ था। मैंने रहस्य पूछा तो उन्होंने आपसे मर्म जानने की आज्ञा दी। कृपया अब आप हमें बताओ।”

तुकाराम जी बोलेः “अज्ञान से मूढ़ हुए चित्तवाले देहाभिमानी लोग इस बात को नहीं समझते कि स्वार्थ और अहंकार त्याग कर जो अपने आत्मदेव विठ्ठल में विश्रान्ति पाते हैं उनके संकल्प में अनुपम सामर्थ्य होता है। रिद्धि-सिद्धि उनकी दासी हो जाती हैं। सारा विश्व संकल्प का विलास है। जिसका जितना शुद्ध अन्तःकरण होता है उतना उसका सामर्थ्य होता है।

अज्ञानी लोग भले समर्थजी में सन्देह करें लेकिन समर्थ जी तो समर्थ तत्त्व में सदा स्थिर हैं। उसी समर्थ तत्त्व में सारी सृष्टि संचालित हो रही है। सूरज को चमक, चन्दा को चाँदनी, पृथ्वी में रस, फूलों में महक, पक्षियों में गीत, झरनों में गुंजन उसी चैतन्य परमात्मा की हो रही है। ऐसा जो जानता है और उसमें स्थित रहता है उसके लिए यह सब खिलवाड़ मात्र है। शिवाजी ! सन्देह मत करना। मनुष्य के मन में अथाह शक्ति व सामर्थ्य भरा है, अगर वह अपने मूल में विश्रान्ति पावे तो। स्वामी समर्थ क्या नहीं कर सकते ?

          मैं तो एक साधु हूँ, हरि का दास हूँ, अनाथ से भी अनाथ हूँ। मेरा घर देखो तो टूटा-फूटा झोंपड़ा है लेकिन मेरी आज्ञा तीनों लोक मानते है। रिद्धि-सिद्धि मेरी दासी है। साधुओं का माहात्म्य क्या देखना ? उनके विषय में कोई सन्देह नहीं करना चाहिए।”
शिवाजी महाराज अगम निगम में यथेच्छ विचरने वाले संतों की लीला पर सानंदाश्चर्य का अनुभव करते हुए विदा हुए।

  “जय जय श्री विट्ठलनाथ”


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