Varuthini Ekadashi Vrat Katha
हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है।
बैशाख के महीने के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली वरुथिनी एकादशी इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करने वाली है। वरूथिनी के व्रत से सदा सौख्य का लाभ तथा पाप की हानि होती है। यह सबको भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। मान्यता है कि वरूथिनी के व्रत से मनुष्य दस हजार वर्षों तक की तपस्या का फल प्राप्त कर लेता है। कृष्ण पक्ष की एकादशी होने के कारण यह वानप्रस्थ सन्यास एवं विधवाओं के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है यदि आप एकादशी का निष्काम व्रत कर रहे हैं तो आपको सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है। इस व्रत को करने वाले को 1 दिन पूर्व से ही इस व्रत में संलग्न हो जाना चाहिए।
हर एकादशी के महत्व को बताने वाली एक खास कथा हमारे पौराणिक ग्रंथों में है। वरुथिनी एकादशी की भी एक कथा है जो इस प्रकार है। बहुत समय पहले की बात है नर्मदा किनारे एक राज्य था जिस पर मांधाता नामक राजा राज किया करते थे। राज बहुत ही पुण्यात्मा थे, अपनी दानशीलता के लिये वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। वे तपस्वी भी और भगवान विष्णु के उपासक थे।
एक बार राजा जंगल में तपस्या के लिये चले गये और एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाकर तपस्या आरंभ कर दी वे अभी तपस्या में ही लीन थे कि एक जंगली भालू ने उन पर हमला कर दिया वह उनके पैर को चबाने लगा। लेकिन राजा मान्धाता तपस्या में ही लीन रहे भालू उन्हें घसीट कर ले जाने लगा तो ऐसे में राजा को घबराहट होने लगी, लेकिन उन्होंने तपस्वी धर्म का पालन करते हुए क्रोध नहीं किया और भगवान विष्णु से ही इस संकट से उबारने की गुहार लगाई। भगवान अपने भक्त पर संकट कैसे देख सकते हैं।
विष्णु भगवान प्रकट हुए और भालू को अपने सुदर्शन चक्र से मार गिराया। लेकिन तब तक भालू राजा के पैर को लगभग पूरा चबा चुका था। राजा बहुत दुखी थे दर्द में थे। भगवान विष्णु ने कहा वत्स विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी जो कि वरुथिनी एकादशी कहलाती है पर मेरे वराह रूप की पजा करना। व्रत के प्रताप से तुम पुन: संपूर्ण अंगो वाले हष्ट-पुष्ट हो जाओगे।
भालू ने जो भी तुम्हारे साथ किया यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पाप का फल है। इस एकादशी के व्रत से तुम्हें सभी पापों से भी मुक्ति मिल जायेगी। भगवन की आज्ञा मानकर मांधाता ने वैसा ही किया और व्रत का पारण करते ही उसे जैसे नवजीवन मिला हो। वह फिर से हष्ट पुष्ट हो गया। अब राजा और भी अधिक श्रद्धाभाव से भगवद्भक्ति में लीन रहने लगा।
वरुथिनी एकादशी पर भगवान मधुसूदन की पूजा की जाती है। इस दिन भगवान नारायण के वराह अवतार की पूजा भी किए जाने की परंपरा है। कुछ लोग इस दिन उपवास भी रखते हैं। कहा गया है कि इस व्रत को रखने से समस्त पाप व ताप नष्ट होते हैं। वरुथिनी एकादशी का व्रत भी एक खास तरीके से रखा जाता है। उपवास रखने के लिए दशमी तिथि से ही व्रती को नियमों का पालन शुरू कर देना चाहिए। एकादशी के दिन सुबह स्नान के पश्चात व्रत का संकल्प करते हुए भगवान विष्णु के वराह अवतार की विधिविधान से पूजा करते हुए व्रत कथा भी सुननी या फिर पढ़नी चाहिए।
दशमी के दिन केवल एक बार ही अन्न ग्रहण करना चाहिए। भोजन भी पूरी तरह सात्विक होना चाहिए। कांस, उड़द, मसूर, चना, दो बार भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए। इस दिन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन भी करना चाहिए। पान खाने, दातून करने, परनिंदा, द्वेष, झूठ, क्रोध आदि का भी पूर्ण त्याग करना चाहिए। रात्रि में भगवान के नाम का जागरण करना चाहिए और द्वादशी को विद्वान या ब्राह्मण को भोजनादि करवा कर दान-दक्षिणा देकर व्रत का पारण करने से व्रत सफल माना जाता है और तभी व्रत पूर्ण होता है। इस व्रत में नमक, तेल अथवा अन्न वर्जित माना जाता है।
वरूथिनी एकादशी का व्रत करने वाले को दशमी के दिन से निम्नलिखित वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिये-
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