डाकू रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि कैसे बने? Story of Shri Maharishi Valmiki 1

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डाकू रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि कैसे बने?

महर्षि वाल्मीकि की कथा

Story of Shri Maharishi Valmiki


महर्षि वाल्मीकि की कथा

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डाकू रत्नाकर का परिचय

महर्षि वाल्मीकि जी का जन्म आश्विन मास की पूर्णिया को हुआ था,महर्षि वाल्मीकि का पूर्व नाम रत्नाकर था। रत्नाकर का काम राहगीरों को लूट कर धन कमाना था। रत्नाकर जिस किसी को भी लूटता, वह व्यक्ति उसे रोता, गिड़गिड़ाता, भयभीत होता ही दिखता।

डाकू रत्नाकर की नारद जी से भेंट और शिक्षा

आज उसने एक अजीब साधु देखा था, जो बिल्कुल भी नहीं डरा। इस साधु ने तो एक शब्द भी अपनी प्राणरक्षा के लिए नहीं कहे बल्कि उल्टा उपदेश दे रहा है। उसके निष्ठुर हृदय को कभी भी रोने, विलापने वालों को देखकर दया नहीं आयी थी, किन्तु इस साधु की निर्भयता और स्नेहपूर्ण वाणी ने उसे अचम्भित कर दिया।

यह नारद जी थे जो संयोगवश उस दिन उस वन क्षेत्र से निकल थे। रत्नाकर ने देखते ही उन्हें धर दबोचा। देवर्षि ने निर्भय होकर बड़े स्नेह से कहा-‘ मैं तो साधु हूँ। ईश्वर की भक्ति में लीन रहता हूँ। न किसी से मोह है न ही माया बटोरने का लोभ। मेरे पास रखा ही क्या है। परन्तु एक बात बताओ भैया! तुम प्राणियों को क्यों व्यर्थ मारते हो? जीवों को पीड़ा देने से बड़ा कोई दूसरा पाप नहीं है।’

रत्नाकर बोला-‘मैं अपने परिवार का अकेला कमाने वाला हूँ। मुझे कोई ओर कार्य नहीं आता, यदि मैं लूटकर धन न ले जाऊँ तो परिवार का पालन-पोषण कैसे होगा। वे सब तो भूखें मर जायेंगे।’
‘तुम जिनका भरण-पोषण करने के लिए इतने पाप करते हो, वे तुम्हारे इस पापकर्म में भागी होंगे या नहीं, जरा उनसे पूछ कर तो आओ।

चिन्ता मत करो, मैं तो हूँ फक्कड़ इंसान भागकर कहीं नहीं जाऊँगा। बोलो तो तुम्हारे साथ ही चल दूँ।’-देवर्षि ने कहा रत्नाकर बोला-‘बिल्कुल नहीं! तुम मुझे मूर्ख समझ रहे हो। साथ ले गया तो मेरा भेद खोलोगे। अगर मैं तुम्हें यहाँ छोड़कर परिवार के पास गया तो मेरे चुंगल से तुम भाग जाओगे।’
देवर्षि ने हंसते हुए कहा-‘भैया! विश्वास न हो तो मुझे एक पेड़ से इस तरह बांध दो कि भागने का विचार भी न कर सकूं।’

रत्नाकर को यही उचित लगा। नारद जी को पेड़ से बांध दिया। वहाँ से वह तेजी से घर गये कि कहीं देर हो गयी तो यह साधु हाथ से निकल सकता है। उसने घर के सभी सदस्यों से अपने पाप का भागीदार बनने के विषय मे पूछा। सबने एक ही उत्तर दिया-‘हमारा पालन-पोषण करना आपका दायित्व है। अतः आपके द्वारा किये गये कार्य में हम भागीदार नहीं बन सकते।’

रत्नाकर को तो जैसे सांप सूंघ गया। वह सोचने लगा ‘वह साधु तो सही कहता था। जिस परिवार के पोषण के लिए दिन-रात एक करके, अपना जीवन संकट में डालकर, अनगिनत प्राणियों को मारा, पाप पर पाप करते गया, उन्हें उसके पाप-पुण्य से कुछ मतलब नहीं।
रत्नाकर अत्यन्त बिचलित हो गया था। उसके मोह के जैसे सारे बन्धन ही टूट गये। भारी कदमों से वह वन में गया। लग रहा था जैसे न जाने कितना दूर उसे जाना है।
वहाँ पहुंचते ही वह साधु के चरणों पर गिर पड़ा। वह छटपटाता हुआ बोला-‘भैया! मेरे उद्धार का कोई मार्ग बताओ।’
नारद जी ने उन्हें राम नाम की महिमा बता कर उसका जाप करने के लिए कहा।

ब्रह्मा जी द्वारा ऋषि वाल्मीकि की उपाधि

वे तो बचपन से ही कुसंगत में पड़े हुए थे। लुटेरे-डाकूओं के संगत से डाकू हो गये। लूट खसोट और मार-काट ही वे किया करते थे। विद्या प्राप्त करने में भी कोई रुचि न थी। अतः वे ‘राम’ भी ढंग से नहीं बोल पा रहे थे।
नारद जी ने कुछ विचार कर उन्हें ‘मरा’ नाम जपने की सलाह दी। रत्नाकर वहीं बैठकर जपने लगे-मरामरा मरामरा……। जिद्द इतनी कि समय बीतता चला गया, किंतु वह नहीं उठे। उनका जाप चलता रहा। दीमकों ने एक ही जगह स्थित देखकर उन्हें पेड़ समझा और उनके शरीर पर अपना घर बना लिया। कालान्तर में उनका पूरा शरीर दमकों की बाॅबी से ढक गया।

ब्रह्माजी उनकी तपस्या से अति प्रसन्न हुए। उन्होंने दीमाकों द्वारा खाये हुए अंगों को सुन्दर, पुष्ट बना दिया। वल्मीक (बाॅबी वल्मीक का अपभ्रंस रूप है) से निकलने के कारण उस दिन से वह वाल्मीकि हो गये। ब्रह्मा जी ने ही उन्हें सर्वप्रथम ऋषि वाल्मीकि कहकर पुकारा था।
भगवान नाम के प्रभाव से वह परम दयालु ऋषि हो गये थे।

ऋषि वाल्मीकि द्वारा रामायण की रचना

एक बाद महर्षि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के प्रेमालाप करते हुए जोड़े को निहार रहे थे। उसी समय एक व्याध ने जोड़े में से एक को मारा दिया। महर्षि का दयालू हृदय द्रविड़ हो गया। दुःख में उनके मुख से व्याध को धिक्कारते हुए अनायास ही एक श्लोक निकल पड़ा। यह प्रथम छन्द था। उसी छन्द से वाल्मीकि जी आदिकवि हुए। वहीं से उन्होंने महाकाव्य रामायण की रचना प्रारम्भ की।

अपने अवतार के अंतिम काल में जब मर्यादापुरुषोत्तम राम ने लोक लाज के कारण माता सीता का त्याग किया, उस समय माता ने महर्षि वाल्मीकि जी के ही आश्रम शरण ली। लव-कुश का जन्म और शिक्षा-दीक्षा आश्रम मे ही हुई।

महार्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण भवसागर से पार कराने वाला ऐसा ग्रन्थ है जिसने पुत्र का कर्तव्य, मर्यादा, सत्य, प्रेम, भातृत्व, मित्रता एवं सेवक के धर्म को उदाहरण सहित हम सबके समक्ष रथहमारे लिए अति अनुकरणीय और प्रेरणा के स्रोत है।

महर्षि वाल्मीकि जी का जन्म आश्विन मास की पूर्णिया को हुआ था, इस वर्ष उनका जन्मदिन 24 अक्टूबर को मनाया जाएगा। हम सब का महार्षि वाल्मीकि को सत-सत नमन।

 प्रिये मित्रो आप सभी से निवेदन है की श्री नारद को प्रेम से पुकारा कीजिये ये याद रखिये सदैव ही जिन जिन को श्री नारद जी के दर्शन हुए उन सभी को प्रभु के दर्शन हुए ! यह किसी की दाल न गले वह नारद जी की दाल गलती है ! यह सभी बातें रद्द हो जाएँ वहाँ नारद जी की बात रद्द नहीं होती उन्ही को नारद कहते हैं ! क्यों कि नारद जी भगवान का मन हैं और प्रभु मन कि सुनते हैं ! यहां मन लगा वहीं हरी दर्श हो जाते हैं फिर पल भर की देर नहीं होतीं ! इसलिए आप भी देरी किये बग़ैर प्रभु में अपना मन लगाइये और प्रभु दर्शन का लाभ प्राप्त कीजिये !

प्रेम से बोलिये जय श्री राम
बोलो श्री भक्त वत्सल भगवान की जय



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This Post Has One Comment

  1. Neeraj

    ha ha ha
    writer of the Ramayan, the holy book of Hindus, was a Dacoit. Who told you this dear?
    Shame on hinduism,
    where were those people who were reciting the name of RAM correctly? why no one of them could write Ramayana.
    Whereas the person Reciting MARA Mara became a Maharishi.

    Complete Nonsense.

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