What is Navadha Bhakti?
नवधा भक्ति क्या है?
नवधा भक्ति की सम्पूर्ण व्याख्या
नवधा भक्ति
भक्ति-साहित्य में शबरी के फलों की मिठास का बार-बार वर्णन आता है। भगवान राम को इन फलों में जैसा स्वाद मिला, वैसा स्वाद न तो पहले कहीं मिला था और न बाद में ही कहीं मिला। भीलनी को सामाजिकता की मूलधारा में ले आते हैं। उनके हाथों से बेर खाकर राम ने एक वनवासिन का मन ही नहीं रखा, बल्कि उसे पारिवारिकता दी। भगवान श्रीराम ने शबरी द्वारा श्रद्धा से भेंट किए गए बेरों को बड़े प्रेम से खाए और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।
श्रीरामचरितमानस में श्री राम शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं अर्थात भक्ति के नौ-रूप क्या हैं-
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥
जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
प्रथम भगति संतन कर संगा
नवधा भक्ति में प्रथम भक्ति सतसंग को ही बताते हुए स्वयं श्रीराम प्रभु के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :– “प्रथम भगति संतन कर संगा !” वहीं दूसरी ओर वेदव्यास जी भी श्रीमद्भागवतम् में भक्त प्रहलाद के माध्यम से प्रथम भक्ति “श्रवणं” ही बताते हैं । श्रवणं का अर्थ हुआ प्रभु की लीलाओं को श्रवण करना । प्रभु की लीलाओं का रसास्वादन करने के लिए सतसंग की ही शरण लेनी पड़ेगी । कहने का तात्पर्य यह है कि :- जब तक हम प्रबुद्ध ज्ञानियों की संगत नहीं करेंगे तब तक पूजा, पाठ, जप, तप, आराधना के विषय में जानेंगे कैसे ? अत: सतसंग ही प्रभु प्राप्ति की प्रथम सीढी होने के साथ ही श्रेष्ठ भी है । सतसंग से ही मनुष्य में भगवान का दर्शन करने या प्राप्त करने की इच्छायें प्रबल होती हैं और वह जप एवं तपस्या की ओर अग्रसर होता है । सतसंग अर्थात संतों का संग। अब प्रश्न उठता है संत कौन तो भगवान कहते हैं-
संत असंतन्हि कै असि करनी।
जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई।
निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है।
बिषय अलंपट सील गुनाकर।
पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी।
लोभामरष हरष भय त्यागी॥
संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं, उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है। वे मद से रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं।
कोमलचित दीनन्ह पर दाया।
मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी।
भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥
उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणों के समान हैं।
बिगत काम मम नाम परायन।
सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री।
द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते है। शांति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं। उनमें शीलता, सरलता, सबके प्रति मित्र भाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करने वाली है।
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर।
जानेहु तात संत संतत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।
परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥
हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जो शम (मन के निग्रह), दम (इंद्रियों के निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते।
निंदा अस्तुति उभय सम
ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय
गुन मंदिर सुख पुंज॥
जिन्हें निंदा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा!
प्रभु राम ने माता शबरी को भक्ति के दूसरे स्वरुप में कथा प्रसंग व प्रभु के चरित्र का गुणगान करना और सुनना बताया है।
गोस्वामीजी ने रामकथा को मंदाकिनी बताया चित्रकूट के वर्णन में-
“रामकथा मंदाकिनी, चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।।”
इस मंदाकिनी और रामकथा में गोस्वामीजी को सर्वथा साम्य दिखाई देता है। रामकथा मंदाकिनी महिमामयी भक्ति-गंगा का सुलभ रूप है, यद्यपि ब्रह्म लोक की दुर्लभ गंगा मृत्युलोक में आकर सुलभ हो गयीं, किन्तु फिर भी अत्रि ऋषि के लिए उतनी सुलभ नहीं थीं। उन्हें पैदल चलकर वहाँ जाना ही पड़ता था। रामभक्ति भी अपने मूल स्वरूप में अतीव दुर्लभ है। यहाँ सती अनसूया ही भगीरथ बनीं, क्योंकि उनमें असूया यानी पर दोष दर्शन का अभाव था-
“नदी पुनीत पुरान बखानीं।अत्रिप्रिया निज तप बल आनी।।
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। सो सब पातक पोतक डाकिनि।।”
रामकथा भी वक्ता के माध्यम से अभिब्यक्त होती है, किन्तु फल श्रोता को प्राप्त होता है। जैसे श्रम अनसूया ने किया, किन्तु फल अत्रि को प्राप्त हुआ। वक्ता का अंतःकरण अनसूया की भाँति है तथा श्रोता अत्रि के स्थान पर प्रतिष्ठित है। गोस्वामीजी ने शिव पार्वती संवाद में लिखा है-
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी । तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ।।
पूछेहूँ रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा ।।
पार्वती जी भगवान शिव से श्री राम चरित के बारे में पूछती हैं । भगवान शिव पार्वती की प्रसंशा करते हुए कहते हैं कि तुम धन्य हो , तुम्हारे समान कोई दूसरा उपकार करने वाला नहीं है कारण तुमने श्रीराम कथा पूछी है जो संपूर्ण जगत को पवित्र करने वाली गंगा जी की तरह है ।
गंगा जी ने पृथ्वी पर आकर संपूर्ण जगत को पावन कर दिया पर राम कथा तो संपूर्ण ब्रह्मांड को पावन करने वाली है । इसे सुनकर जीव का अपवित्र मन पावन हो जाता है । इस कलिकाल में हम आप भी राम कथा कह कर, सुनकर धन्य हो सकते हैं ।
श्रीमद्भागवत पुराण के प्रारम्भ में कहा गया है- भक्ति के दो पुत्र ज्ञान एवं वैराग्य हैं। भक्ति यौवनवती है। ज्ञान एवं वैराग्य वृद्ध हो चुके हैं। भगवान के कथामृत में भक्ति का वास होता है। भक्ति से ज्ञान एवं वैराग्य पुष्ट होते हैं। इसलिए कहा गया-
खग पति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।।
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुन्दर तरनी।।
वैराग्य, विवेक एवं भक्ति को दृढ़ करने के लिए, भय एवं दुःख को हरनेवाली राम कथा का वर्णन कागभुशुण्डि जी ने किया। यह कथा मोह (अज्ञान) रूपी नदी को पार करने के लिये सुन्दर नौका है।
भगवान शबरी जी से तीसरी भक्ति के बारे में कह रहे है –
“गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान”
अर्थात् तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा। तीसरी भक्ति में “अमान” विशेषता लगा दी। “अमान” होने का अर्थ है ‘अभिमान का त्याग करना’ अभिमान के त्याग का अर्थ है कि ईश्वर की शरण में जाकर कुल, जाति, विद्या, धन, पद आदि का मान नहीं करना और ना ही सांसारिक यश की प्राप्ति की चाह को रखना। जिस हृदय में अभिमान है उसमें प्रेम और भक्ति के लिए स्थान ही कहांँ है। भक्ति का अमृत केवल विनम्र हृदय में ही ठहर सकता है अतः अभिमान को त्यागना ही श्रेयस्कर है।
गुरुदेव जिस आचरण, व्यवहार को पसंद करते है, उनकी आज्ञा, उपदेश, इच्छा, प्रसन्नताओं में जीना ही उनकी सेवा है। हम भले ही उनके साथ नहीं है, क्योकि साथ में रहने से कभी-कभी कमजोरियां दिखायी देने लगती है, गुरु और शिष्य में बीच मुकद्दमे तक चलने लगते है। उनके सानिध्य में, ह्रदय में उपस्थिति का अनुभव करना, गुरु जैसा आचरण करते है, जीवन में वैसा आचरण करना। गुरु देखेंगे तो क्या सोचेगे? और आचरण आज्ञा भी “मान छोड़कर”। उनकी कृपा मेरे ऊपर बरस रही है, मेरे जीवन से दुर्गुण चले गए। जैसे पार्वती जी को नारद जी ने उपदेश दिया, कि जाकर भगवान शिव का तप करो वे तुम्हे पति रूप में अवश्य मिलेगे, तब पार्वती जी तप करती है, और सप्तऋषि उनकी परीक्षा लेने जाते है।
सप्तऋषि बोले- नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है। उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन निर्लज्ज, बुरे वेष वाला, नर-कपालो की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर बार का, शरीर पर सापों को लपेटे रखने वाला है। अकेले रहने वाले के घर भी भला स्त्री टिक सकती है, घर नहीं, रोजी रोटी नहीं। इस पर पार्वती जी बोली –
“नारद बचन ना मै परिहरऊ, बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊ। गुरु के बचन प्रतीति ना जेही, सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।।”
अर्थात – मै नारद जी के वचनों को नहीं छोडूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े इससे मै नहीं डरती, जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती। जो गुरु के वचन नहीं छोड़ता सारे वैभव उसके चरणों में आ जाते है।स्वयं शिव जी भी सौ बार कहे तो भी नारद जी के उपदेश को ना छोडूँगी। जब ऋषियों ने पार्वती जी के ऐसे प्रेम को देखा तो वे जय हो! जय हो! कहकर सिर नवाकर चले गए।
अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान रुपी प्रकाश से जीवन को सफलता के उजाले की ओर ले जाने का कार्य गुरु के आशीर्वाद से ही संभव होता है। गोस्वामी जी के शब्दों में, गुरु की श्रद्धापूर्ण सेवा उनकी आज्ञा का पालन करना यह विशिष्ट भक्ति है। तुलसीदास जी गुरु की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि- ‘गुरु बिनु भव निधि तरई न कोई। जो बिरंचि संकर सम होई।’ मतलब गुरु के मार्गदर्शन के बिना अज्ञान रूपी भवसागर से ब्रह्मा, शंकर सदृश देव भी पार नहीं हो सकते हैं।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।
भक्ति का चौथा अंग कपट को त्याग कर प्रभु का गुणगान करना है अर्थात सच्चे हृदय से भक्ति करना। निष्कपट गुणगान को ही भक्ति का चौथा अंग कहा गया है। मानस के विभिन्न प्रसंगों में विभिन्न पात्रों के माध्यम से ऐसे निष्कपट स्वाभाविक भक्ति को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया है। चाहे वो राम वनवास के समय अगस्त्यमुनि के शिष्य, राम भक्त सुतीक्ष्ण का राम से मिलने का वर्णन है या मानस के सातवें कांड में महात्मा कागभुशुण्डी जी का राम भक्त गरुड़ जी को राम की अपार महिमा का गुणगान सुनाने का है। राम का गुणगान सुनने पर गरुड़ जी की भी वैसे ही अवस्था हो जाती है जैसी मानस में वर्णित अन्य भक्तों की। भक्ति में ना भय का भाव होना चाहिए ना स्वार्थ का।
श्रीरामचरितमानस में भगवान शिव जी ने कहा है- राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी॥ जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं।।
भगवान श्री राम अनंत हैं, उनके गुण अनंत हैं, जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं। जल की बूँदें और पृथ्वी के रजकण चाहे गिने जा सकते हों, पर श्री रघुनाथजी के चरित्र वर्णन करने से नहीं चूकते।
एक भक्त द्वारा निष्काम भाव से ईश्वर की भक्ति करना ही सच्ची भक्ति है। प्रभु का सच्चा भक्त वही है, जो भगवान से ही प्रेम करता है। सच्चे हृदय से उन्हें याद करता है और बदले में उनसे संसार की कोई वस्तु नहीं मांगता है। भगवान श्री कृष्ण, भगवद गीता में कहते हैं।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
“जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो उत्तम श्रेणी के होते हैं।”
एक भक्त ही भय व चिंता से सम्पूर्ण मुक्ति महसूस कर सकता है। एक भक्त ही भौतिक जगत के दुःखों व मुश्किलों से परे जा सकता है। एक सच्चे भक्त की अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती है, मोक्ष प्राप्त करने की भी नहीं। एक भक्त के हृदय में भक्ति की ज्योत उसपर गुरु कृपा से, सत्संग व अन्य भक्तों की संगति के कारण और भक्तों और साधकों की बातें, किस्से श्रवण करने से सदैव प्रज्वलित रहती है।
“जब नदिया का सागर से मिलन होता है, तब नदी को यह पता चलता है की वो चिरकाल से सागर ही थी ! इसी प्रकार जिस क्षण एक भक्त श्रद्धा भाव से ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है, वोह तत्क्षण ईश्वर हो जाता है।”
गीता जी में भगवान ने कहा है-
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
ऐसा भक्त जो शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है और शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुःख-दुःख (मन-बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है और जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने, न होने में) सन्तुष्ट रहने वाला तथा शरीर में ममता-आसक्ति से रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। अर्थात् राग-द्वेष से रहित सिद्ध भक्त के हृदय में किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव नहीं रहता। वह अपने आपमें पूर्णतया सदैव सम रहता है। मान-अपमान स्थिति जन्य है। भक्त में अहंता और ममता न होने के कारण उसके अन्तःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) उत्पन्न नहीं होता और अपनी समता की स्थिति को बनाये रखता है। इन्द्रियों का अपने विषयों से संयोग होने पर उसके अन्तःकरण में समता होने से कोई विकार नहीं होता। यही स्थिति उसमें पदार्थों-धनादि की प्राप्ति-अप्राप्ति में सुःख-दुःख के प्रति है। अतः प्राप्ति-अप्राप्ति में वह हर्ष-शोक से रहित है। स्वरूप से मनुष्य पदार्थों का संग-साथ छोड़ नहीं सकता, परन्तु वह अपने अन्तःकरण में उनमें आसक्ति, लगाव, जुड़ाव का त्यागकर सकता है। आसक्ति ही प्राणी को कामना, क्रोध, मूढ़ता का शिकार बनाती है। राग-आसक्ति का कारण मैं-पन है, जो मन, बुद्धि, इन्द्रियों और विषयों के प्रति है। विवेक इसको त्यागने में सहायक है। प्राणी का भगवान् से स्वाभाविक लगाव-प्रेम है, जो कि उसमें संसार के प्रति आसक्ति के कारण दबा-ढँका रहता है। भक्त के मन में शरीर के प्रति अहंता-ममता न होने से उस पर निंदा-स्तुति का प्रभाव नहीं पड़ता और इन दोनों में ही उसकी सम बुद्धि बनी रहती है। वह चिंतन-मननशीेल है और बगैर आवश्यकता के व्यर्थ नहीं बोलता। वह शरीर निर्वाह के लिये जो कुछ भी मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितयों में भी सम है। उसमें किसी प्रकार का कपट नहीं है। उसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति किसी भी प्रकार की शंका नहीं है। अतः स्थिर बुद्धि है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिये उसे किसी प्रमाण, शास्त्र-विचार, स्वाध्याय आदि की ज़रुरत नहीं है। जिस व्यक्ति ने भगवत्भक्ति से स्वयं को भर लिया है, वही भक्तिमान और नर-मनुष्य कहलाने के काबिल है।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
भक्ति का पांचवा अंग है भक्त का ईश्वर में दृढ़ विश्वास होना। परमार्थ में दृढ़ विश्वास की भारी महत्ता है। परमार्थ की सिद्धि के लिए मन को एकाग्र और स्थिर करना आवश्यक है और यह ईश्वर भक्ति द्वारा ही संभव है। हमारे मन और आत्मा की स्वाभाविक बैठक आंँखों के पीछे और मध्य में है। हमारा मन और आत्मा दोनों वहांँ से उतरकर शरीर के रोम रोम में और सारे संसार में फैले हुए हैं। हमारा मन संसार के पदार्थों में बंधा हुआ हैं इसीलिए यह बार-बार इन पदार्थों की तरफ जाता है। संसार सागर को पार करने के लिए और दुखों से छुटकारा पाने के लिए ईश्वर भजन ही आवश्यक है। प्रभु के भजन के बिना जन्म मरण के भय का नाश नहीं होता और इसी से ही सभी दुखों का अंत भी होता है। भगवान राम जी शबरी जी से भक्ति के पाँचवें प्रकार के बारे में बताते हैं – ‘मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा’
‘मंत्र’ का अर्थ शास्त्रों में ‘मन: तारयति इति मंत्र:’ के रूप में बताया गया है, अर्थात मन को तारने वाली ध्वनि ही मंत्र है। वेदों में शब्दों के संयोजन से ऐसी ध्वनि उत्पन्न की गई है, जिससे व्यक्ति का मानसिक कल्याण हो। ईश्वर के मंत्र जप – भगवान में गहरी आस्था, जो इरादों को मजबूत बनाए रखती है।
यदि मंत्र किसी ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु द्वारा प्राप्त हो और नियमपूर्वक उसका जप किया जाय तो कितना भी दुष्ट अथवा भोगी व्यक्ति हो, उसका जीवन बदल जायेगा । दुष्ट की दुष्टता सज्जनता में बदल जायेगी । भोगी का भोग योग में बदल जायेगा । मंत्रजाप करने से साधक संसार के समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। तुकारामजी महाराज कहते हैं- “नामजप से बढ़कर कोई भी साधन नहीं है। तुम और जो चाहो करो, पर नाम लेते रहो, इसमें भूल न हो, यही मेरा सबसे पुकार-पुकार कर कहना है। अन्य किसी साधन की कोई जरूरत नहीं। बस, निष्ठा के साथ नाम जपते रहो।”
मंत्र जप की वैज्ञानिकता*- सेना की टुकड़ी जब मार्च करते हुए किसी पुल पर से गुजरने लगती है तो उसे कदम मिला कर चलने से मना कर दिया जाता है। क्योंकि कदम मिला कर चलने से उत्पन्न ध्वनि तरंगों से पुल के टूटने का खतरा हो सकता है। एक तालाब में पत्थर फेंकने पर लहरें उत्पन्न होती हैं जो बढती हुई किनारों से टकरा कर वापस उसी केंद्र बिंदु पर एकत्र होती हैं जहाँ से उत्पन्न हुई थीं।
उसी प्रकार साधक जब साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए नियत संख्या में नियत अवधि में, निश्चित समय और नियम पूर्वक जप करता है । तो साधक के तन, मन, अन्तःकरण में मंत्र जप से उत्पन्न शक्तिशाली तरंगे पूरे परिवेश को प्रभावित करती हुई अन्तरिक्ष का भ्रमण कर हजार गुना शक्तिशाली होकर पुनः साधक तक वापस लौटती हैं। और साधक के अन्तरंग में चमत्कारिक परिवर्तन कर देती हैं।
‘भज सेवायाम्’ धातु से भक्ति शब्द की सिद्धि होती है- ‘भजनं भक्तिः।’ भजन अर्थात सेवन को ही भक्ति कहा जाता है। सेवा यद्यपि शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि से की गयी कायिकी, ऐन्द्रियिकी, मानसी भेद से अनेक हैं तथापि मुख्य सेवा मानसी ही है। मानसी सेवा ही सर्वश्रेष्ठ है। महानुभावों ने भी कहा है-
“कृष्णसेवा सदा कार्य्या मानसी सा परामता।
चेतस्तत्प्रवणं सेवा तत्सिद्धयै तनुवित्तजा।।”
अर्थात प्राणी को सदा श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिये। सेवा में भी मानसी सेवा ही सर्वोत्कृष्ट सेवा है। चित्त की कृष्णोन्मुखता या कृष्ण में तन्मयता ही सेवा है।
भजन का अर्थ सेवा है, अथवा ‘सेवन’ जिसका तात्पर्य जीवन में उसे आत्मसात कर लेना है। सौ रोगों की एक औषधि, मंत्र जाप। मंत्र कौन सा जपे। श्रीराम जय राम जय जय राम।
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
छठवीं भक्ति है अपने शील, अर्थात चरित्र के निर्माण के लिए सदा प्रयत्नरत रहना और जीवन के अनेकों कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कर्मों से एक वैराग्य बनाये रखना ( भगवद्गीता में भी यह मत्त्वपूर्ण जीवन सिद्धांत “कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” के रूप में दोहराया गया है ) । इसके साथ साथ हमेशा स्वयं को सज्जन धर्म यानी अच्छे कामों में ही निरत अर्थात व्यस्त रखना चाहिए ।
‘दम’ का अर्थ है इंद्रियों का दमन करना यानी उन्हें अपने वश में रखना। ‘शील’ का अर्थ है आचरण की निर्मलता संत जनों द्वारा समझाए गए आचरण और नियमों के पालन में निरंतर लगे रहना ही छठी भक्ति है। भक्ति सच्चे और निष्काम भाव से की जाने वाली अंतर्मुखी साधना है इसके लिए किसी भी बाहरी क्रिया या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे-जैसे भक्त शील, क्षमा, संतोष, विवेक, नम्रता, अहिंसा, सेवा आदि गुणों को धारण करता है उसके ह्रदय में प्रभु का प्रेम परिपक्व होता रहता है वह स्वयं ही विकारों से मुक्त होता जाता है।
भारतवर्ष के अनेक ऋषि-मुनियों व विद्वानों ने धर्म शब्द की परिभाषा देते हुए उसका निर्वाचन किया है, जो इस प्रकार है –
‘‘धृयते धार्यते सेवते इति धर्म:’’
‘‘ध्रियते लोक: अनेन अर्थात् जिससे लोक का धारण किया जाय वह धर्म है।
धरति धारयति वा लोकम् अर्थात् जो संसार को धारण करता है अथवा करवाता है। वह धर्म है।
ध्रियते लोकयात्रानिर्वाहार्थ य: स: धर्म:’’
अर्थात् जिसे लोकयात्रा का निर्वाह करनें के लिए धारण किया जाय, वह धर्म है। कुछ विद्वान *‘धरति इति धर्म:’ यह निर्वचन (व्युत्पत्ति) करते हैं अर्थात् जिन नियमों से सर्वथा अविरोधी, सार्वत्रिक, सार्वजनीन, पालन-पोषण हो सके उन आचरणों का नाम धर्म है।
गीता में श्री कृष्ण ने कर्म रूप भावों के द्वारा अनेकानेक धर्म लक्षणों की गणना निम्न रूपों में की है-निश्चय करने की शक्ति यथार्थ ज्ञान असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, दम आदि। ‘‘वेद, स्मृति, धर्मसूत्रादि, शिष्टजनों व सज्जनों के आचार एवं उनके उपदेशानुसार अपने विवेक बुद्धि से आत्मसंतोष के साथ प्रत्येक व्यक्ति को आचरण करना चाहिए, जिसमें यज्ञ, आचार, दम, अहिंसा, दान, स्वाध्याय तथा होमादि कर्म यह सभी धर्म स्वरूप हैं और इनमें भी उत्कृष्ट धर्म योग के द्वारा आत्मदर्शन है, जिसे महाराज मनु ने पूर्व में ही कहा है कि दिव्यदृष्टि के साथ इन सबको अच्छी तरह देख-विचार कर वेद को प्रमाण मानते हुये विद्वान पुरुष अपने धर्म में लगे रहें क्योंकि श्रुति और स्मृति दोनों से ही धर्म प्रकट हुआ है।’’
सातवाँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ।।
प्रभु राम शबरी को नवधा भक्ति का सातवां अंग समझाते हुए कहते हैं: भक्त को चाहिए कि वह ऐसा माने कि प्रभु सारे संसार में रमा हुआ है, लेकिन वर्तमान अवस्था में उसके लिए प्रभु से भी महत्वपूर्ण संत हैं।
जगत के प्रत्येक कण में प्रभु समाये हुए हैं । जो साधक अपने मन और इंद्रियों को वश में करके अपने आचरण को पवित्र रखते हुए भक्ति की साधना में लगा रहता है उसे संसार के कण-कण में परमात्मा दिखाई देते हैं प्रभु को सर्वव्यापक देखना केवल श्रेष्ठ भक्तों के ही भाग्य में है। संसार के सभी जड़ चेतन जीवों में एक ही राम समाए हुए हैं।
भगवान सर्वव्यापी है। प्रत्येक प्राणि में भगवान दिखने लगे तो भक्ति का प्रारंभ होता है। भक्ति में कार्य करने का प्रारंभ होता है । ज्ञान में कुछ करना नहीं होता, ‘तस्य कार्यं न विद्यते’ ऐसा गीता कहती है । परन्तु भक्ति में काम करना पड़ता है। सर्व भूतों में आत्मा को देखना, ‘ज्ञान’ है और भगवान को सर्व भूतों में देखना, ‘भक्ति’ है । ये दोनों दृष्टियाँ जिसमें है, वह ज्ञानी भक्त है । ज्ञानी भक्त का ईश्वर के सर्जन पर प्रेम होता है । यह सम्पूर्ण विश्व आत्मा (परमात्मा) का सर्जन है और वह उसमें स्थित है, अर्थात् विश्व भगवान का है और भगवान उसमें रहते हैं ऐसी उनकी धारणा होती है। वास्तव में सच्चा प्रेम प्रभुपर होता है, परन्तु यह सभी प्राणी मात्र और पदार्थ प्रभु के होने के कारण उनके प्रति प्रेम होता है । यह स्थिति प्राप्त होने पर शोक या मोह नहीं रहता, क्योंकि उसको सब प्रभुरुप या प्रभु का लगता है।
ज्ञान व बोध में फर्क है । सर्व भूतों में भगवान है यह ज्ञान और उसका बोध जिसको हुआ है वही ज्ञानी भक्त है । गोस्वामीजी तुलसीदासजी जैसे सन्तों को ईश्वर के इस विश्वात्मरुप का दर्शन होता था । इसीलिए उन्होने रामचरितमानस में लिखा है-
जड चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदऊँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥
आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ।
सीय राम मय सब जग जानी । करऊँ प्रणाम जोरि जुग पानी ॥
भगवत्कृपा से इस प्रकार की दृष्टि जिसे मिल जाती है, उसके लिए शुभ-अशुभ, भला-बुरा, उत्कृष्ट-निकृष्ट का भेद भाव मिट जाता है । उसे सभी जीवों में परमेश्वर दिखाई पड़ते हैं । गीता में उसे समदर्शी कहा गया है । ऐसा समदर्शी व्यक्ति किसी जीव से द्वेष नहीं करता है, किसी के प्रति बैर भाव नहीं रखता है ।
सभी जीवों के प्रति मित्रता, करुणा का भाव रखता है- अद्वेष्टा सर्व भूतानां मैत्र: करुण एव च। उसे सभी जीवों में संपूर्ण सृष्टि में अपने प्रभु के दर्शन होते हैं । आत्मा सर्वत्र है, यह तत्वज्ञान जीवन में चरितार्थ हुआ है, यह जगत भगवान से व्याप्त है ऐसा जिसको बोध होता है उसे संत कहते हैं और ऐसे संतों को भगवान राम कहते हैं कि उनको मुझसे अधिक मानना, ‘मोतें संत अधिक कर लेखा’ । संत की महत्ता समझाते समय संत भगवान से भी श्रेष्ठ है ऐसा समझाया है । और सबसे अधिक कोई पवित्र होगा तो वह संत है। भारतीय संस्कृति में तीन चीजें पवित्र मानी गयी हैं – काशी, हिमालय और गंगा । इन तीनों से भी संत अधिक पवित्र है । काशीमरणान्मुक्ति- काशी में मरने पर मुक्ति मिलती है, परन्तु मरने के लिए काशी जाना पड़ता है । कितने ही लोग काशी में रहने के लिए जाते हैं। काशी में मृत्यु के बाद मुक्ति मिलती है ऐसा कहा जाता है । संतों के विचार यदि दिमाग में आया तो दु:ख, दारिद्रय और कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है । इसलिए काशी से भी सन्त अधिक पवित्र हैं ऐसा लिखा है। हिमालय पवित्र है, परन्तु हिमालय के पास जाने के लिए वित्त चाहिए । सन्त के पास जाने के लिए वित्त नहीं लगता, अपितु भाव लगता है और भाव सबके पास होता है । गंगा पवित्र है, परन्तु वह अदृष्ट फल सूचक है । गंगा मरने के बाद मुक्ति देती है, परन्तु सन्त के विचार व सान्निध्य से जीवित होते हुए भी दैवी, सुखी, आनन्दी तथा तेजस्वी हो सकते हैं । इसलिए सन्त भगवान से भी श्रेष्ठ है ऐसा कहा गया है । भगवान तो सभी को सुख व दु:ख देते हैं, परन्तु सन्त सभी को सुख कैसे मिलेगा यह देखते हैं। गोस्वामी बाबा ने लिखा है- संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥ निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥
सन्त की महिमा के सम्बन्ध में गोस्वामी जी “वैराग्य संदीपनी” में लिखते हैं-
को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत की।
जिन्ह के बिमल बिबेक, सेस महेस न कहि सकत ॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि एक मुख से संत की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है। जिनके मलरहित मायारहित विशुद्ध विवेक है, वे सहस्रमुखवाले शेषजी और पंचमुख महेश्वर शिवजी भी उसका कथन नहीं कर सकते।
महि पत्री करि सिंधु मसि, तरु लेखनी बनाइ।
तुलसी गनपत सों तदपि, महिमा लिखी न जाइ॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि संतकी महिमा इतनी अपार है कि पृथ्वी को कागज, समुद्र को दवात और कल्पवृक्ष को कलम बनाकर भी, गणेशजी से भी उसकी महिमा नहीं लिखी जा सकती।
धन्य धन्य माता पिता, धन्य पुत्र बर सोइ।
तुलसी जो रामहि भजे, जैसेहुँ कैसेहुँ होइ॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि उसके माता-पिता धन्य-धन्य हैं और वही श्रेष्ठ पुत्र धन्य है, जो जैसे-कैसे भी भगवान श्रीरामचन्द्रजी का भजन करता है।
अंत में यह कहना गलत नही होगा यदि ईश्वर पिता है तो संत माँ है। संतों की बड़ी महत्ता है, भगवान से भी संत महान हैं।
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहि देखइ परदोषा।।
जो कुछ मिल जाए उसमें सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना। जो परमात्मा को सर्वत्र देखता है वह भला कहीं किसी में दोष कैसे देख सकता है। उसे तो संसार में जो कुछ भी प्राप्त है उतने में ही संतोष रहता है। इस अवस्था में भक्तों को जो मिल जाए उसे हरि इच्छा समझकर उसी में संतुष्टि रहती है और स्वप्न में भी किसी दूसरे में दोष दिखाई नहीं देता। असंतोष प्रकट करना प्रभु के ज्ञानरूप और दयारूप पर संदेह प्रकट करना है।
भगवान स्वयं तृप्त हैं, इसलिए अतृप्त व्यक्ति भगवान को नहीं रुचता । नीतिकार बतलाते हैं कि कहाँ संतोष और कहाँ असंतोष होना चाहिए ।
संतोषस्त्रिषु कर्तव्य: स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु चैव न कर्तव्यो दाने तपसि पाठने ॥
अपनी पत्नी, भोजन और धन के सम्बन्ध में संतोष रखना चाहिए, लेकिन दान, तप और अध्ययन में संतोष रखना उचित नहीं है।
सुख-दु:ख जो भी मिले उसमें तो संतोष करना ही चाहिए। संतोष सुख का मूल है और असंतोष दुख का कारण। असंतोष से मन विचलित रहता है। यह धैर्य, विश्वास, प्रीति और प्रतीति की जड़ को काट देता है। संतोष के बिना शांति असंभव है। जो व्यक्ति अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा के अधीन कर देता है उसे लोक परलोक के सब सुख प्राप्त होते हैं और वह अंततः नाम यानी प्रभु में ही समा जाता है।
लोग जैसे जीवन तथा काल से अतृप्त रहते हैं, उसी तरह वस्तु से भी अतृप्त रहते हैं । मूल बात यह है कि भगवान जीव को अपने पास लेने से पहले जांच करते हैं कि वह प्राप्त परिस्थियों और वस्तुओं के बीच किस प्रकार रहा? जीवन के सम्बन्ध में जीवात्मा की धारणा कैसी रही? जिस काल में मैने उसे भेजा है, उसमें उसने क्या किया है? क्या वह काल को गाली देते बैठे रहा? मनुष्य यदि काल से अतृप्त-असंतुष्ट रहे तो इससे क्या काल बदलने वाला है? ‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रव्रत्तो’ यह काल फिर आनेवाला नहीं है। ऐसा सुन्दर जीवन फिर मिलेगा या नहीं, यह शंकास्पद है। इसलिए वर्तमान काल को कोसते हुए कपाल पर हाथ लगाए बैठे रहने वाले को फिर ऐसा जीवन मिलने वाला नहीं है । जो मानव काल, जीवन और वस्तु से तृप्त रहता है वही भगवान को पसन्द है ।
भगवान राम कहते हें कि मनुष्य को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए । समझपूर्वक अपनी कृति के निरीक्षण को आत्मनिरीक्षण कहते हैं । कृति योग्य होगी तो रखो और अयोग्य होगी तो निकाल दो, इसीको आत्मनिरीक्षण कहते हैं ।
आज हमारी आत्मनिरीक्षण शक्ति बढती नहीं है, परन्तु परनिरीक्षण शक्ति बढती है । परनिरीक्षण अध्यात्म नहीं है, आत्मनिरीक्षण अध्यात्म है । ‘आत्मनि अधि इति अध्यात्मं’ ।’ हम परनिरीक्षण करते हैं कि दूसरे की क्या भूल है। इसलिए भगवान कहते हैं, ‘सपनेहु नहिं देखई परदोषा’ । अध्यात्म में आत्मनिरीक्षण को प्रथम माना गया है । भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को अंतर्मुखी कर अपनी सच्ची आलोचना करता है, और अपनी बुराईयों को दूर करने का सतत् उद्योग करता है, तथा संतोषरुपी धन को जीवन में लाने का प्रयत्न करता है वह भक्त मुझे अति प्रिय है । भगवान कहते हें कि कभी भूल कर भी दूसरे के दोषों को नहीं देखना चाहिए यानी सामने के आदमी की त्रुटि पहचाननी है, मगर किसी से कहनी नहीं है ।
गुण दोषौ बुधौ गृण्हन्निन्दुक्ष्वेडाविष्वेश्वर: । शिरसा श्लाघते पूर्व कण्ठे नियच्छति ॥
गुण और दोष भगवान शिवजी ने ग्रहण किया है । भगवान शिवजी ने चन्द्र को सिर पर धारण किया है और हलाहल को गले में धारण किया है । इसी तरह हमें दूसरों के गुण-दोष ग्रहण करने चाहिए । हमारी छिद्रान्वेषी विचारधारा है इसलिए हमारी बुध्दि में दूसरों के दोष ही ध्यान में आते हैं । दूसरों के दोष किसी से मत कहो । दूसरों के गुण अन्य लोगों से कहो तो गुण दृढ होते जायेंगे और दूसरों के दोष भूल जाओ।
भगवान राम इस प्रकार आठवीं भक्ति में संतोषरुपी धन जीवन में लाने व आत्मनिरीक्षण करने को कहते हैं तथा दूसरों के दोषों को न देखते हुए आत्मचिंतन करना चाहिए यह समझाते हैं ।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
सरलता और सबके साथ कपट रहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। भगवान नववीं भक्ति में समझाते हुए कहते हैं कि भक्त को सरल स्वभाव का होना चाहिए । भगवान को सरलता अच्छी लगती है। निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ भक्ति के परिपक्व होने पर भक्त में स्वाभाविक सरलता और निश्छलता आ जाती है। इस नवम् भक्ति की अवस्था में भक्त अपने हृदय में प्रभु के प्रति अटल विश्वास रखते हुए निष्कपट व्यवहार करता है। सुख और दुख में विचलित न होना ही सच्चे भक्त की पहचान है।
ईश्वर हमें प्रेम से संभालता है। जीवन में कुछ गुण लाने हों तो प्रेम चाहिए। आदमी जितना प्रेमी होता है उतना वह सरल होता है । उसे साधु कहते है । संस्कृत में साधु का अर्थ सरल विचार का । सरल बनने का प्रयत्न करो और किसी भी घटना का सरल अर्थ लो। बुध्दि को उलटे अर्थ निकालने की आदत नहीं लगनी चाहिए। अगर वैसी आदत पड गयी तो जन्म जन्मांतर का नुकसान होगा। उसका कारण वही बुध्दि हमें अगले जन्म में मिलेगी।
भगवान आगे कहते हैं कि सरलता के साथ-साथ किसी भी अवस्था में भक्त में हर्ष और विषाद नहीं होना चाहिए । भगवान कहते हैं – जो बुध्दि पर विषयों के आघात (प्रभाव) से हर्षित (पागल) नहीं होता, वही मुझ को रुचता है । बुध्दि पर विषयों के आघात से हर्षित होनेवाला व्यक्ति भले ही अच्छा हो, पर वह भगवान को पसन्द नहीं आता। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वस्तु के मिलने पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए । प्रसन्नता तो होगी ही, पर प्रसन्नता पागलपन की सीमा तक नहीं पहुँचनी चाहिए । शक्कर खाने पर मीठा लगना और उससे सुखानुभव होना नैसर्गिक बात है । गीताकार ने सुख की व्याख्या करते हुए कहा है : ‘मात्रास्पर्षास्तु कौन्तेय षीतोष्णसुखदु:खदा।’ इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्बन्ध होते ही सुख या दु:ख की अनुभूति होगी ही, परन्तु सुख भोगने पर पागल जैसा बनना उचित नहीं है । विषय सम्बन्ध से आनंदित होना स्वाभाविक है, पर उसका अतिरेक नहीं होना चाहिए । हर्ष कर्तव्य की विस्मृति लाता है, यही उसका सर्वाधिक दोष है। गीता में कहा है: ‘तांस्तितिक्षस्व भारत’ अर्जुन सुख-दु:ख को सहन कर । सुख को सहन करना आना चाहिए । सुख को सहन करना बहुत कठिन है । सुख के अनुभव के पश्चात् पागलपन न आए, इसीलिए ही हम कहते हैं : प्रारब्ध से अथवा पुरखों के आशीर्वाद से मिला है । ताकि अहंकार न बढें और पागलपन न आए।
उपरोक्त नौ प्रकार की भक्ति में कोई भी भक्ति करने वाला व्यक्ति भक्त होता है और भगवान का प्रिय होता है।
नवधा भक्ति
सारांश
यह नवधा भक्ति भक्त अपने-आपको अहंकारसहित सर्वथा सदा के लिये परमात्मा के समर्पण कर देता है। ऐसा भक्त ही निष्किंचन कहलाता है। यह अवस्था बहुत ही ऊँची होती है। राजा बलि ने साकार भगवान के चरणों में अपने को अर्पण करके और याज्ञवल्क्य, शुकदेव, जनकादि ने नित्य निर्विकार निर्गुण निराकार भगवान में अपना अहंकार सर्वतोभावेन विलीन करके आत्मनिवेदन-भक्ति को सिध्द किया था ।
यही भाग्वतोक्त नवधा भक्ति के भेद हैं । रामचरित मानस में गोसाईं जी महाराज ने नवधा भक्ति का क्रम यों बतलाया है —
१. सत्संग।
२. भगवत-कथा में अनुराग।
३. मानरहित होकर गुरुसेवा करना।
४. कपट छोड़कर भगवान के गुण गाना।
५. दृढ विश्वास से राम-नाम जप करना।
६. इन्द्रियदमन, शील, वैराग्य आदि सत्पुरुषों द्वारा सेवनीय धर्म का आचरण करना।
७. जगत को हरिमय और संत को हरि से भी अधिक समझना।
८. सबसे छल छोड़कर सरल बर्ताव करना।
९. भगवान पर दृढ भरोसा रखकर हर्ष-विषाद न करना।
अतः भगवत्कृपा पर विश्वास करो – ‘आप पर भगवान की बड़ी कृपा है; तभी तो आपको मनुष्य का देह मिला है। यह और भी विशेष कृपा समझो जो आपको भजन करने की बुध्दि प्राप्त हुई और भजन के लिये सुअवसर मिला। इस सुअवसर को हाथ से मत जाने दें, नहीं तो पछतायेंगे।’ गोस्वामी जी ने विनयपत्रिका में लिखा है-
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते॥
सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते।
हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥
सुत-बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते।
अंतहु तोहिं तर्जेंगे पामर ! तू न तजै अबही ते॥
अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
बुझै काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय-भोग बहु घी ते॥
अरे मन! (मनुष्य-जन्म की आयु का यह) सुअवसर बीत जाने पर तुझे पछताना पड़ेगा। इसलिये इस दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर कर्म, वचन और हृदय से श्रीभगवान् के चरण-कमलों का भजन कर।
सहस्रबाहु और रावण आदि (महाप्रतापी) राजा भी बलवान् काल से नहीं बच सके, उन्हें भी मरना पड़ा। जिन्होंने ‘हम-हम’ करते हुए धन और धाम सँभाल सँभालकर रखे थे, वे भी अन्त समय यहाँ से खाली हाथ ही चले गये (एक कौड़ी भी साथ न गयी)।
पुत्र, स्त्री आदि को स्वार्थी समझ इन सबसे प्रेम न कर। अरे अधम! जब ये सब तुझे अन्त समय में छोड़ ही देंगे, तो तू इन्हें अभी से क्यों नहीं छोड़ देता? (इनका मोह छोड़कर अभी से भगवान् में प्रेम क्यों नहीं करता?)।
अरे मूर्ख! (अज्ञान-निद्रा से) जाग, अपने स्वामी (श्रीरघुनाथजी) से प्रेम कर और हृदय से (सांसारिक विषयों से सुख की) दुराशा को त्याग दे, (विषयों में सुख है ही नहीं, तब मिलेगा कहाँ से?) हे तुलसीदास! जैसे अग्नि बहुत-सा घी डालने से नहीं बुझती (अधिक प्रज्वलित होती है), वैसे ही यह कामना भी ज्यों-ज्यों विषय मिलते हैं त्यों-ही-त्यों बढ़ती जाती है। (यह तो सन्तोषरूपी जल से ही बुझ सकती है)।
मनुष्य का शरीर मृत्यू के बाद किसी काम का नहीं रहता, जीवित अवस्था में भी हर समय बदबू दार पसीना आदि , फिर भी मनुष्य का शरीर श्रेष्ठ है और अति दुर्लभ है ।
“बड़े भाग्य मानुष तन पावा” , सुर दुर्लभ है यह मानव देह ।
क्योंकि इसी शरीर से भक्ति करके साधना करके भगवान को भी भक्त लोग अपने मुठ्ठी में कर लेतें हैं । “अहं भक्त पराधिन:” ( भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ) भगवान भक्त इशारे पर नाचते हैं भक्त के पीछे पीछे चलते हैं ताकि उसका चरणधूलि उनके मस्तक पर पड़े । इतना कमाल है मानव देह में । वो भगवद् प्राप्त करके भगवान को भी अपने मुट्टी में रखता है । यह मानव तन कभी कभी मिलता है । भगवान दया करके , कृपा करके किसी जीव को मनुष्य तन दे देते हैं । “कबहुंक क करि करूणा नर देही” पर जब मानुष तन एक दिन छीन जाता है तब दुःख पाता है जीव , अफसोस करता है , सिर पीट पीटकर पछताता है और अपना दोष न समझकर (वह उल्टे) काल पर, कर्म पर या ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।
जय जय सियाराम
हम उम्मीद करते हैं की आपको यह ‘नवधा भक्ति क्या है? What is Navadha Bhakti?‘ पसंद आया होगा। इस प्रकार के आध्यात्मिक प्रेरक प्रसंग पढ़ने और सुनने के लिए पधारे। इस प्रसंग के बारे में आपके क्या विचार हैं हमें कमेंट करके जरूर बताये।
आध्यात्मिक प्रसंग, लिरिक्स भजन, लिरिक्स आरतिया, व्रत और त्योहारों की कथाएँ, भगवान की स्तुति, लिरिक्स स्त्रोतम, पौराणिक कथाएँ, लोक कथाएँ आदि पढ़ने और सुनने के लिए HindiKathaBhajan.com पर जरूर पधारे। धन्यवाद