Tuladan of Shri Dwarkadhish
श्री द्वारिकाधीश का तुलादान
एक बार देवर्षि नारद के मन में आया कि भगवान् के पास बहुत महल आदि हैं, एक-आध हमको भी दे दें तो यहीं आराम से टिक जायें, नहीं तो इधर-उधर घूमते रहना पड़ता है।
भगवान् के द्वारिका में बहुत महल थे। नारद जी ने भगवान् से कहा – “भगवन !” आपके बहुत महल हैं, एक हमको दो तो हम भी आराम से रहें। आपके यहाँ खाने- पीने का इंतजाम अच्छा ही है। भगवान् ने सोचा कि यह मेरा भक्त है, विरक्त संन्यासी है। अगर यह कहीं राजसी ठाठ में रहने लगा तो थोड़े दिन में ही इसकी सारी विरक्ति भक्ति निकल जायेगी।
हम अगर सीधा ना करेंगे तो यह बुरा मान जायेगा, लड़ाई झगड़ा करेगा कि इतने महल हैं और एकमहल नहीं दे रहे हैं। भगवान् ने चतुराई से काम लिया, नारद से कहा- “जाकर देख ले, जिस मकान में जगह खाली मिले वही तेरे नाम कर देंगे।”नारद जी वहाँ चले।
भगवान् की तो 16108 रानियाँ और प्रत्येक के 11-11 बच्चे भी थे। यह द्वापर युग की बात है। सब जगह नारद जी घूम आये लेकिन कहीं एक कमरा भी खाली नहीं मिला, सब भरे हुए थे। आकर भगवान् से कहा “वहाँ कोई जगह खाली नहीं मिली।”
भगवान् ने कहा फिर क्या करूँ, होता तो तेरे को दे देता।” नारद जी के मन में आया कि यह तो भगवान् ने मेरे साथ धोखाधड़ी की है, नहीं तो कुछ न कुछ करके, किसी को इधर उधर शिफ्ट कराकर, खिसकाकर एक कमरा तो दे ही सकते थे। इन्होंने मेरे साथ धोखा किया है तो अब मैं भी इन्हे मजा चखाकर छोडूँगा।
नारद जी रुक्मिणी जी के पास पहुँचे, रुक्मिणी जी ने नारद जी की आवभगत की, बड़े प्रेम से रखा। उन दिनों भगवान् सत्यभामा जी के यहाँ रहते थे। एक आध दिन बीता तो नारद जी ने उनको दान की कथा सुनाई, सुनाने वाले स्वयं नारद जी। दान का महत्त्व सुनाने लगे कि जिस चीज़ का दान करोगे वही चीज़ आगे तुम्हारे को मिलती है।
जब नारद जी ने देखा कि यह बात रुक्मिणी जी को जम गई है तो उनसे पूछा “आपको सबसे ज्यादा प्यार किससे है ?” रुक्मिणी जी ने कहा “यह भी कोई पूछने की बात है, भगवान् हरि से ही मेरा प्यार है।” नारदजी कहने लगे “फिर आपकी यही इच्छा होगी कि अगले जन्म में तुम्हें वे ही मिलें।”
रुक्मिणी जी बोली “इच्छा तो यही है।” नारद जी ने कहा “इच्छा है तो फिर दान करदो, नहीं तो नहीं मिलेँगे। आपकी सौतें भी बहुत है और उनमें से किसी ने पहले दान कर दिया उन्हें मिल जायेंगे। इसलिये दूसरे करें इसके पहले आप ही करदे।” रुक्मिणी जी को बात जम गई कि जन्म-जन्म में भगवान् मिले तो दान कर देना चाहियें। रुक्मिणी से नारद जी ने संकल्प करा लिया। अब क्या था, नारद जी का काम बन गया।
नारद जी सीधे सत्यभामा जी के महल में पहुँच गये और भगवान् से कहा कि “उठाओ कमण्डलु, और चलो मेरे साथ।” भगवान् ने कहा “कहाँ चलना है, बात क्या हुई ?” नारद जी ने कहा “बात कुछ नहीं, आपको मैंने दान में ले लिया है। आपने एक कोठरी भी नहीं दी तो मैं अब आपको भी बाबा बनाकर पेड़ के नीचे सुलाउँगा।” सारी बात कह सुनाई।
भगवान् ने कहा “रुक्मिणी ने दान कर दिया है तो ठीक है। वह पटरानी है, उससे मिल तो आयें।” भगवान् ने अपने सारे गहने गाँठे, रेशम के कपड़े सब खोलकर सत्यभामा जी को दे दिये और बल्कल वस्त्र पहनकर, भस्मी लगाकर और कमण्डलु लेकर वहाँ से चल दिये।
उन्हें देखते ही रुक्मिणी के होश उड़ गये। पूछा “हुआ क्या ?” भगवान् ने कहा “पता नहीं, नारद कहता है कि तुमने मेरे को दान में दे दिया।” रुक्मिणी ने कहा “लेकिन वे कपड़े, गहने कहाँ गये, उत्तम केसर को छोड़कर यह भस्मी क्यों लगा ली ?” भगवान् ने कहा “जब दान दे दिया तो अब मैं उसका हो गया। इसलिये अब वे ठाठबाट नहीं चलेंगे।” रुक्मिणी ने कहा “मैंने इसलिये थोड़े ही दिया था कि ये ले जायें।” भगवान् ने कहा “और काहे के लिये दिया जाता है ?
इसीलिये दिया जाता है कि जिसको दो वह ले जाये।” अब रुक्मिणी को होश आया कि यह तो गड़बड़ मामला हो गया। रुक्मिणी ने कहा “नारद जी यह आपने मेरे से पहले नहीं कहा , अगले जन्म में तो मिलेंगे सो मिलेंगे, अब तो हाथ से ही खो रहे हैं।” नारद जी ने कहा “अब तो जो हो गया सो हो गया, अब मैं ले जाऊँगा।” रुक्मिणी जी बहुत रोने लगी। तब तक हल्ला-गुल्ला मचा तो और सब रानियाँ भी वहाँ इकठ्ठी हो गई।
सत्यभामा, जाम्बवती सब समझदार थीं। उन्होंने कहा “भगवान् एक रुक्मिणी के पति थोड़े ही हैं, इसलिये रुक्मिणी को सर्वथा दान करने का अधिकार नहीं हो सकता, हम लोगों का भी अधिकार है।” नारद जी ने सोचा यह तो घपला हो गया। कहने लगे “क्या भगवान् के टुकड़े कराओगे ? तब तो 16108 हिस्से होंगे।” रानियों ने कहा “नारद जी कुछ ढंग की बात करो। “नारद जी ने विचार किया कि अपने को तो महल ही चाहिये था और यही यह दे नहीं रहे थे, अब मौका ठीक है, समझौते पर बात आ रही है।
नारद जी ने कहा भगवान् का जितना वजन है, उतने का तुला दान कर देने से भी दान मान लिया जाता है। तुलादान से देह का दान माना जाता है। इसलिये भगवान् के वजन का सोना, हीरा, पन्ना दे दो।” इस पर सब रानियाँ राजी हो गईं। बाकी तो सब राजी हो गये लेकिन भगवान् ने सोचा कि यह फिर मोह में पड़ रहा है। इसका महल का शौक नहीं गया। भगवान् ने कहा “तुलादान कर देना चाहिये, यह बात तो ठीक है।”
भगवान् तराजू के एक पलड़े के अन्दर बैठ गये। दूसरे पलड़े में सारे गहने, हीरे, पन्ने रखे जाने लगे। लेकिन जो ब्रह्माण्ड को पेट में लेकर बैठा हो, उसे द्वारिका के धन से कहाँ पूरा होना है। सारा का सारा धन दूसरे पलड़े पर रख दिया लेकिन जिस पलड़े पर भगवान बैठे थे वह बैसे का बैसा नीचे लगा रहा, ऊपर नहीं हुआ। नारद जी ने कहा “देख लो, तुला तो बराबर हो नहीं रहा है, अब मैं भगवान् को ले जाऊँगा।” सब कहने लगे “अरे कोई उपाय बताओ ?” नारद जी ने कहा “कोई उपाय नहीं है।”
अन्य सब लोगों ने भी अपने अपने हीरे पन्ने लाकर डाल दिये लेकिन उनसे क्या होना था। वे तो त्रिलोकी का भार लेकर बैठे थे। नारद जी ने सोचा अपने को अच्छा चेला मिल गया, बढ़िया काम हो गया। उधर सभी रानियाँ चीख रही थीं। नारद जी प्रसन्नता के मारे इधर ऊधर टहलने लगे। भगवान् ने धीरे से रुक्मिणी को बुलाया। रुक्मिणी ने कहा ” कुछ तो ढंग निकालिये आप इतना भार लेकर बैठ गये, हम लोगों का क्या हाल होगा ? “
भगवान् ने कहा “ये सब हीरे पन्ने निकाल लो, नहीं तो नारद जी मान नहीं रहे हैं। यह सब निकालकर तुलसी का एक पत्ता और सोने का एक छोटा सा टुकड़ा रख दो तो तुम लोगों का काम हो जायगा।” रुक्मिणी ने सबसे कहा कि यह नहीं हो रहा है तो सब सामान हटाओ। सारा सामान हटा दिया गया और एक छोटे से सोने के पतरे पर तुलसी का पता रखा गया तो भगवान् के वजन के बराबर हो गया। सबने नारद जी से कहा ले जाओ “तूला दान।”
नारद जी ने खुब हिलाडुलाकर देखा कि कहीं कोई डण्डी तो नहीं मार रहा है। नारद जी ने कहा इन्होंने फिर धोखा दिया। फिर जहाँ के तहाँ यह लेकर क्या करूँगा ? उन्होंने कहा “भगवन् ! यह आप अच्छा नहीं कर रहे हैं, केवल रानियों की बात सुनते हैं, कभी मेरी तरफ भी देखो।” भगवान् ने कहा नारद ! “आपकी तरफ ही देखता हूँ। आप सारे संसार के स्वरूप को समझ कर फिर मोह के रास्ते जाना चाहते हैं, तो मैं आपको गलत राह पर कैसे जाने दे सकता हूँ।” तब नारद जी ने समझ लिया कि भगवान् ने जो किया सो ठीक किया। नारद जी ने कहा “एक बात मेरी मान लो।
आपने मुझे तरह-तरह के नाच अनादि काल से नचाये और मैंने भी तरह-तरह के खेल आपको दिखाये। कभी मनुष्य, कभी गाय इत्यादि पशु, कभी इन्द्र वरुण आदि संसार में कोई ऐसा स्वरूप नहीं जो चौरासी के चक्कर में किसी न किसी समय में हर प्राणी ने नहीं भोग लिया। अनादि काल से यह चक्कर चल रहा है, सब तरह से आपको खेल दिखाया। आप मेरे को ले जाते रहे और मैं खेल करता रहा।
अगर आपको मेरा कोई खेल पसंद आ गया हो तो आप राजा की जगह पर हैं और मैं ब्राह्मण हूँ तो मेरे को कुछ इनाम देना चाहिये। वह इनाम यही चाहता हूँ कि मेरे शोक मोह की भावना निवृत्त होकर मैं आपके परम धाम में पहुँच जाऊँ। और यदि कहो कि “तूने जितने खेल किये सब बेकार हैं, तो भी आप राजा हैं। जब कोई बार-बार खराब खेल करता है तो राजा हुक्म देता है कि “इसे निकाल दो।” इसी प्रकार यदि मेरा खेल आपको पसन्द नहीं आया है तो फिर आप कहो कि इसको कभी संसार की नृत्यशाला में नहीं लाना है। तो भी मेरी मुक्ति है।”
भगवान् बड़े प्रसन्न होकर तराजू से उठे और नारद जी को छाती से लगाया और कहा “आपकी मुक्ति तो निश्चित है।
Dwarikadhish Ki Jay
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