नारद जी को मोह क्यो हुआ Narad Moh Ki Katha


Narad Moh Ki Katha


नारद मोह की सम्पूर्ण कथा

नारद जी ने भगवान को श्राप क्यो दिया
नारद जी के श्राप के कारण भगवान राम जी का अवतार हुआ था
नारद जी के मोह का कारण
नारद जी को मोह क्यो हुआ
 
 
नारद मोह की कथा
भाग 1
 
सज्जनों -माँ चण्डिका की असीम कृपा से आप लोगो के बीच रामकथा के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण प्रसंग नारद मोह की कथा लेकर उपस्थित हो रहा हुँ । आशा है कि आप सब पूर्व की भाँति अपना स्नेह प्रदान करते रहेगे । अपने अनमोल सुझाव प्रदान करते रहेगें । इस प्रसंग मे हम चर्चा करेंगे कि थोडी सी असावधानी से बडा से बडा ज्ञानी ,त्यागी भी किस प्रकार से माया मोह मे जकडा जा सकता है । हम जीवन मे जब भी परमात्मा को भूलकर अपना बाहुबल मानने लगते है तब तब हम अपने लक्ष्य से भटकते हैं ।
मित्रों – माता पार्वती ने भगवान शिव से पूँछा प्रभू मै जानना चाहती हूँ कि प्रभू श्रीराम ने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया ।
नाथ धरेउ नरतन केहि हेतू । मोहि समझाइ कहेउ वृषकेतु ।।
भगवान शिवजी कहते है देवी  जब जब धर्म की हानि होती है ,जब तब समाज मे अभिमानी ,असुर एवं अधर्म की वृद्धि होती है । इतने सारे अत्याचार होते है कि जितना वर्णन शब्दो मे वर्णित न हो सके ,जब साधु ,गाय ,ब्राम्ह्यण , पर अत्यधिक  अत्याचार होने लगे तब तब प्रभू अलग अलग रुप मे धरती पर अवतरित होते है । जिस समय जिस शरीर की आवश्यकता होती है प्रभू वही शरीर लेकर अवतरित होते है ।जब वाराह (सूकर) बनने की आवश्यकता थी वाराह बने ,जब नरसिंह बनने की आवश्यकता पडी नरसिंह बने  । कभी परशुराम तो कभी वामन ,कच्छप जब जैसी परिस्थित थी तब वैसा ही रुप बनाकर अवतार ग्रहण किया । इस प्रकार अलग अलग शरीर धारण कर के संतो एवं सज्जनो की पीडा हरने के लिये आते है । उसी क्रम मे भगवान श्रीराम पृथ्वी पर मनुष्य बनकर क्यूँ आयें ? किसलिये लीला की ? उसी की चर्चा हम सब करेगें ।
भगवान शिवजी कहते हैं ,देवी ! हम कितना कारण बताये ,प्रभू कभी एक कारण से शरीर धारण नही करते । जब कई कार्य इकठ्ठे हो जाते है तब उनका अवतार होता है । मित्रों भगवान शिव  पार्वती जी से कह रहे है –
जनम एक दुइ कहउँ बखानी । सावधान सुनु सुमति भवानी ।।
कितना सुन्दर बिशेषण दिया है यहाँ पर भगवान शिवजी ने माता पार्वती को सुमति भवानी सुन्दर बुद्धिवाली । आपकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल है तभी तो ऐसे गूढ विषय को तुमने पूँछा । सावधान कर रहे है भगवान शिव देवी ! यद्यपि तुम्हारी बुद्धि सुन्दर है फिर भी सावधान होकर सुनना और समझना कहीं पूर्व जन्म वाली बुद्धि जागृत न हो जाय । कारण तो कई है फिर भी जनम एक दुइ एक दो जन्म का विस्तार से वर्णन करता हूँ ।
मित्रों वैसे मानस मे भगवान के अवतार के पाँच कारणो का उल्लेख है । पहला जय विजय को श्राप ,दूसरा जालंधर कथा वृन्दा का श्राप , तीसरा कारण नारद द्वारा प्रदत्त श्राप  ,चौथा कारण मनु सतरुपा को वरदान एवं पाँचवा कारण प्रतापभानु कथा ।
मित्रों – हम यहाँ पर सभी कारणों पर थोडी थोडी चर्चा करना चाहते है । मानस मे कई कल्पो की कथा का समावेश है । भगवान शिवजी पार्वती जी से कह रहे है –
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ । जय अरु विजय जान सब कोऊ ।।
बिप्र श्राप ते दूनउ भाई । तामस असुर देह तिन्ह पाई ।।
मित्रों – भगवान विष्णु के दो द्वारपाल जय और विजय बैकुण्ठ मे द्वार पर अपने कर्तव्य को करने के लिये पहरा दे रहे थे । इतने मे सनक ,सनन्दन ,सनातन और सनतकुमार ,चारो भाई प्रभू के दर्शन करने के लिये बैकुण्ठ पहुँचे ।जय विजय खडे हैं । चारो महात्मा हरि चर्चा करते करते अन्दर प्रवेश करने लगे । जय विजय ने देखा हम यहाँ खडे है ,ये मेरी तरफ देख भी नही रहे है ,पूछने की बात जाने दे ? द्वारपालो को क्रोध आ गया । सज्जनों एक बात है मालिक से ज्यादा नौकरो का पावर होता है। वे अपने आपको मालिक से कम नही समझते । द्वारपालो ने टोका !!!कहाँ चल दिये मुँह उठाये !!! सावधान !! बिना मेरी आज्ञा के कोई अन्दर नही जा सकता ?
 
Balkand
Balkand
 
नारद मोह की कथा
भाग 2
 
सज्जनों — जय विजय ने सनतकुमारो को रोका । सनतकुमारो ने कहा हम तो माता लक्ष्मी एवं पिता नारायण से मिलने जा रहे हैं । आज तक तो मुझे किसी ने कभी भी नही रोका ,और न ही हमे कहीं आने जाने के लिये किसी से आज्ञा लेनी पडती है , इसलिये मेरा रास्ता न रोको ।द्वारपालो ने कहा महराज ! आप लोग यहीं रुके  मै अन्दर जाकर आज्ञा लेकर आता हुँ उसके बाद आप चले जाना । चारो कुमार यह सुनते ही क्रोधित हो गये ।
मित्रों ध्यान दीजियेगा मनुष्य जब कोई कार्य करता है और उसमे पराजित हो जाता है तब मानव निराश हो जाता है ।वह काम करते करते रुक जाता है । पराजय मानव की गति मे रुकावट बनती है । परन्तु गोस्वामी बाबा की दृष्टि मे पराजय की गति की रुकावट है ऐसा नही है । जय विजय भी खतरा उत्पन्न करते है ।प्रभु के पास जाते समय जितना पराजय बाधक बनता है उतना ही जय विजय का अहम भी बाधक बनता है ।
सज्जनों बैकुण्ठ मे जाने के बाद भी सनतकुमारो  एवं पहरेदारो का अहंकार बना हुआ है ।दोनो ओर से वाक युद्ध प्रारम्भ हो गया । सनत कुमारो को अहम है कि हम अपने तपोबल से भगवान के इतने निकट है फिर भी मुझे रोक रहे है । और द्वारपालो को अहम है कि हम अपनी अर्जित तप के द्वारा  भगवान के द्वार पर है । मेरा कोई क्या कर सकता है ? मित्रों अहंकारी मानव कितना भी उँचा पद प्राप्त कर ले वही से नीचे गिरता है । अहं छूटने का एक ही उपाय है प्रभू की शरणागति ।
 
संतो ने दोनो को समझाया कि हम तो संत है ,प्रभु के दर्शन करने आये है पर जय विजय अपनी बात पर अडे है बिना आज्ञा के प्रवेश सम्भव नही है । संत क्रोधित हो गये । जय विजय को श्राप देते हुये कहा , जाओ तुम दोनो का पतन होगा और तुमने मुझे तीन बार रोका है इसलिये 3 जन्मो तक घोर राक्षस बनो । अन्दर बैठे प्रभु सुन रहे थे । प्रभू  तत्क्षण वहाँ पर आ गये और आते ही सनतकुमारो को प्रणाम किया । जैसे ही भगवान के मुख का दर्शन किया संतो ने क्रोध तत्छण शान्त हो गया । संतो ने कहा महराज भूल हो गयी क्रोध के बस मे आकर मैने इन्हे श्राप दे दिया है । भगवान ने कहा ,आप ने कोई भूल नही किया ,आपने बहुत अच्छा किया ,मै तो कहता हुँ महात्मन आप मुझे भी दण्ड दे क्यूँकि सेवक की भूल की सजा उसके मालिक को भी मिलनी चाहिये । सनतकुमारो को अपनी भूल का अहसास हुआ ।
 
प्रभू से छमा माँगने लगे और कहा कि मै दिया श्राप तो वापस नही ले सकता लेकिन इतना जरुर कहता हुँ कि आप के हाथों सदगति प्राप्त करके तीन जन्मो के बाद पुनःआपके पार्षद बन जायेंगे । भगवान वहीं से मुनियों को बिदा कर दिया । एक बार भी अन्दर चलने के लिये नही कहा । क्रोध करने के कारण सनत्कुमारो को प्रभु के द्वार से ही लौटना पडा । किन्तु उनका क्रोध सात्विक था । वे द्वारपाल भगवान के दर्शन मे बाधक बन रहे थे इसलिये क्रोधित हुये । अतः भगवान ने अनुग्रह करके द्वार पर आये सनतकुमारो को दर्शन तो दिया किन्तु भगवान के महल मे प्रवेश नही पा सके । ज्ञानी के लिये ज्ञानमार्ग मे अभिमान विघ्नकर्ता है ।अभिमान के मूल मे यही क्रोध है ।
मित्रों यही जय विजय पहले जन्म मे हिरणाक्ष्य एवं हिरण्यकश्यप हुये जिन्हे भगवान ने वाराह एवं नरसिंह अवतार लेकर उद्धार किया । दूसरा जन्म रावण एवं कुम्भकर्ण रुप मे लिया जिन्हे श्रीराम जी ने मार कर उद्धार किया , लेकिन मुक्ति नही मिली क्यूँ ?
मुकुत न भए हते भगवाना । तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ।।
तीसरा जन्म इन्हे पुनः शिशुपाल एवं दंतवक्र के रुप मे लिया वहाँ पर भगवान कृष्ण  के हाथों मारे गये और तब इनका उद्धार हुआ ।
भगवान शिव माता पार्वती जी से बता रहे है कि यह वही समय था देवी जब कश्यप एवं अदित दशरथ कौशल्या बने थे । भगवान राम के अवतार लेने का दूसरा कारण था वृन्दा का श्राप 
 
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नारद मोह की कथा
भाग 3
 
सज्जनों — याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी से कहते है , एक बार पृथ्वी पर जालन्धर नामक राक्षस हुआ । वह इतना शक्तिशाली था कि इसने सभी देवताओ को पराजित कर दिया ।भगवान शिव भी युद्ध करने के लिये गये ,पूरे प्रयत्न के बावजूद यह मरता नही है ,यह हारता नही था क्यूँकि उसकी पत्नी वृन्दा महान पतिव्रता सती थी ।
परम सती असुराधिप नारी । तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ।।
उस पतिव्रता पत्नी के बल से जलन्धर अजेय बना था । युद्ध मे वृन्दा का पतिव्रत उसका कवच बना था । लाखो प्रयत्न के बाद भी जब शिवजी नही मार पाये तो सभी देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गये और प्रार्थना किया । भगवान ने जालन्धर का रुप लेकर वृन्दा का सतीत्व भंग किया । जालन्धर मारा गया ।. जब वृन्दा को जानकारी हुई तो उसने श्राप दिया कि जिस प्रकार तुमने मेरे साथ छल किया है उसी प्रकार मेरा पति भी तुम्हारी पत्नी के साथ छल करके हरण करेगा ।
छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेंहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह।।
मित्रों इस प्रसंग पर बहुत लोग शंका करते है , जालंधर को मारने के लिये प्रभु ने छल से वृन्दा का सतीत्व भंग किया यह न्याय संगत नही ? जब भगवान ही ऐसा करेंगे तो दूसरे तो करेगें ही । मानस के दो प्रसंग पहला वृन्दा का सतीत्व भंग करना ,दूसरा मेघनाद का यज्ञ विध्वंस करना । इन पर बहुत चर्चा होती है ।
सज्जनों -गोस्वामी बाबा ने मानस के इन दोनो प्रसंगोके माध्यम से सनातन धर्म के उन्नयन का बहुत ही सुन्दर सूत्र बताया है । मानस की यह विशेषता है कि जब भी कोई चिंतक ,विश्लेषक किसी विषय का विशेष मंथन करता है तो तभी उस का भाव समझ सकता है । और वह ऐसा भी नही कह सकता कि मेरा भाव ही सर्वोत्तम है ।
 
मित्रों आज की परिस्थित यह है कि हम अपने आपको भक्त तो कहते है ,धार्मिक तो कहते है परन्तु आँखो के सम्मुख हो रहे अत्याचार ,अधार्मिक कृत्य ,धर्म विरोधी आचरण देखकर आँखे बन्द कर लेते है  । मेरा क्या ? और बडे दुख के साथ यह कहना पडता है कि ऐसे आवश्यक प्रसंग जो कि हमे प्रेरित कर सके उसे आजकल के महान कथाकार या तो कहेगे ही नही कहेंगे भी तो मनमाने ढंग से । जबकि ये दोनो प्रसंग स्पष्ट रुप से इसारा कर रहे है जब अधर्म ,अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर हो तो उस अधर्म ,अत्याचार को समाप्त करने के लिये हमे छल करना भी पडे तो कोई दोष नही है ।
 
उदाहरण से समझे जैसे कोई व्यक्ति लोहे का कवच पहनकर आपसे लडने आये तो आप क्या करोगे ? सबसे पहले हमे उसके उस कवच को तोडना पडेगा तभी हम उससे लड सकते है । जालंधर भयंकर अधर्म का स्वरुप है पर उसने धर्म रुपी कवच पहना है । अपनी पतिव्रता नारी का धार्मिक रुप कवच जालन्धर ने पहना है । उसके अन्दर वह अधर्म का आचरण करता है । भगवान ने संसार को बताया कि वृन्दा का सतीत्व यदि नही तोडा जाएगा तो संसार के किसी स्त्री का सतीत्व नही बचेगा । अगर एक व्यक्ति को त्यागने से पूरा समाज सुरक्षित हो रहा हो तो यह गलत कैसे ? जलंधर भयंकर पाप कर्म करता है ,भविष्य मे तमाम स्त्रिओ के सतीत्व को बचाने के लिये ही वृन्दा का सतीत्व भंग किया भगवान ने ।
 
मित्रों हमारे आपके शरीर मे कोई एक अंग खराब हो जाता है तो डाक्टर कहते है कि अमुक अंग को काटना पडेगा नही तो पूरे शरीर मे विष फैल जायेगा । हम लोग न चाहते हुये उस अंग को कटवा देते है । उसी प्रकार हमे देश , समाज , सनातन धर्म की रक्षा के लिये अगर कुछ अधर्म करना भी पडे तो कर देना चाहिये । यह बहुत महान कार्य होगा । परन्तु निजी स्वार्थ के लिये नही । उसी प्रकार इन्द्रजीत प्रसंग मे भी है । भगवान ने यज्ञ क्यूँ नष्ट करवाया । यदि उसका यज्ञ सफल हो जाता तो क्या वह संसार मे कोई और यज्ञ होने देता क्यूँकि वह तो पहले से ही —
द्विज भोजन मख होम सराधा । सब कै जाइ करहु तुम बाधा ।।
अब बताइये यदि मेघनाद का यज्ञ न भंग होता तो क्या और कोई यज्ञ पूजा पाठ जप तप हो सकता था क्या ?
मित्रों मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि हम नियमतः अपने धार्मिक कृत्य करे लेकिन यदि कभी देश समाज को बचाने के लिये पाप या अधर्म करना भी पडे तो पीछे मत हटना कोई पाप नही लगेगा ।
भगवान शिवजी ने माता पार्वती से कहते है देवी इस तरह श्री राम जी के शरीर धारण करने का  दूसरा कारण है वृन्दा का श्राप । उस कल्प मे जलंधर रावण बना । देवी एक कल्प मे भगवान विष्णु को नारद जी ने श्राप दिया था 
 
नारद मोह की कथा
भाग 4
 
सज्जनों —  भगवान शिवजी कहते हैं देवी !  नारद श्राप दीन्ह इक बारा । कलप एक तेहि लगि अवतारा ।।
नारद जी ने भगवान को श्राप दिया इसलिये प्रभु का अवतार हुआ । माता पार्वती ने अब तक कुछ नही पूँछा था   ! न तो जय विजय की कथा विस्तार से सुनने की इच्छा व्यक्त की और न ही जालन्धर की कथा को ।परन्तु जैसे ही शिवजी ने कहा   तुरन्त माता पार्वती आश्चर्य चकित होकर पूँछ पडी 
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी । नारद बिष्नु भगत पुनि ग्यानी ।।
मित्रों यहाँ पर गुरुभक्ति का अद्भुत निष्ठापूर्वक उदाहरण है ,अद्भुत उदाहरण है । गिरिजा — पर्वत मे जिसका जन्म हुआ । भवानी माता श्रद्धा का अनुपम उदारहण है । श्रद्धा पर्वत की पुत्री है । तो जैसे पर्वत अचल है वैसे ही गुरुदेव के प्रति अविचल श्रद्धा  । जैसे ही भगवान शिव ने कहा कि नारद जी ने प्रभु को श्राप दिया , पार्वती के गुरुदेव है नारद जी , तो *गिरिजा चकित* यह निष्ठा है । गुरुदेव ने श्राप दिया भगवान को ?
माता पार्वती कहती हैं , मेरे गुरुदेव !  नारद विष्णु भगत पुनि ग्यानी देवर्षि नारद जी महराज परम वैष्णव है ,परम ज्ञानी है । महराज यह बताइये — कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा ऐसा कौन सा कारण आ गया कि मेरे गुरुदेव को श्राप देना पडा । का अपराध रमा पति कीन्हा। मित्रों कैसी अद्भुत बात है कि गुरुदेव ने श्राप दिया । गुरु जी कभी भूल कर ही नही सकते ,अवश्य भगवान ने कोई अपराध किया होगा ।शंकर भगवान हंसने लगे मुस्कराकर कहते है देवी !
बोले बिहसि महेस तब भगवान शिव कहते है वाह गुरुभक्ति ऐसी ही होनी चाहिए । लेकिन देवी एक बात निश्चय जान लो । पार्वती जी पूँछती है क्या ? ग्यानी मूढ न कोय न कोई ज्ञानी है , न कोई मूर्ख है ।  तो है क्या ?
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ।।
सब भगवान के हाथ मे हैं । हम कितने बडे विद्वान हो मंच पर बैठ कर प्रवचन कर रहे हो । उसी समय दिमाग की एक नस बगल हो जाय तो लोग यह नही देखेंगे कि कितने बडे विद्वान है वरन तुरन्त कहेंगे यह पागल हो गया है जल्दी हटाओ इसे । इस संसार मे अपने आप को हम विद्वान ,धनवान कुछ भी माने बैठे रहे लेकिन वह विद्वान ,मूर्ख ज्ञानी बनाना सब उस परमात्मा के हाँथ मे है ।
ताहि बैर तजि नाइहि माथा । काल कर्म जिवि जाके हाथा  ।।
मित्रों हम सब परमात्मा के बनाये हुये खिलौने है । व्यर्थ मे विद्वता ,धन का अहंकार कदापि न करे –
इस संसार की गतिविधिओ पर नहि अधिकार किसी का है ।
जिसको हम परमात्मा कहते  ये सब खेल उसी का है ।।
निर्धन धनी ,धनी हो निर्धन , ज्ञानी मूढ मूरख ज्ञानी ।
सबकुछ अदल बदल देने मे कोई नही उसका सानी ।।
सज्जनों – माता पार्वती जी कहती है हे प्रभू ! कृपा करके इस प्रसंग को विस्तार से कहें । भगवान शिवजी  कहते है – एक बार नारद जी हिमालय क्षेत्र मे विचरण कर रहे थे । पर्वतराज हिमालय के उस पवित्र क्षेत्र मे एक सुन्दर गुफा दिखायी दी । गोस्वामी बाबा उसके लिये विशेषण देते है – हिमगिरि गुहा एक अति पावन । पावन ही नही अति पावन । यह गुफा अत्यन्त पबित्र क्यूँ ? क्योंकि — बह समीप सुरसरी सुहावनि ।।
उस गुफा के पास ही गंगा जी बह रही है । माता गंगा जी का दर्शन किया नारद जी ने और जैसे दर्शन किया –
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा । भयउ रमापति पद अनुरागा ।।
दर्शन करते ही नारद जी को भगवान के चरणों का स्मरण हुआ । क्यों ? क्योंकि — निज चरनन ते निकरी सुरसरि । गंगा जी का जन्म तो भगवान के श्रीचरणो से हुआ है । तो जिसका सम्बन्ध भगवान के चरण से है उसे देखकर ही भगवान के चरणो की भक्ति आ जाती है ।भगवान के चरणो का स्मरण होने लगता है । जो स्वयं भगवत पदारविन्द से जुडा है वह दूसरे को भी भगवत चरणो से जोड देता है । नारद जी को लगा कि मुझे यहाँ बैठकर भगवत स्मरण करना चाहिए । 
 
Bhagwat Geeta
Bhagwat Geeta
 
नारद मोह की कथा
भाग 5
 
सज्जनों —- नारद जी को लगा यह स्थान बहुत ही सुन्दर है मुझे यहाँ बैठकर तपस्या करनी चाहिये । परन्तु श्राप लगा है पीछे दक्ष का ।
मित्रो , भागवत जी  मे यह कथा विस्तार से है । सृष्टि विस्तार के लिये दक्ष राजा ने दस हजार पुत्रो को जन्म दिया ,परन्तु नारद जी ने उन समस्त बालको को कूट प्रश्नो मे उलझाकर तपस्वी बना दिया । नारद जी उन पुत्रो से बडे विचित्र प्रश्न किये ,बच्चो ! बताओ दोनो ओर से बहने वाली नदी को देखा है ? बच्चो ने कहा नही महराज । नारद जी ने फिर पूँछा अच्छा ! तो यह बताओ कि ऐसा कोई बिल तुमने देखा है जिसमे घुसने के बाद कोई निकलता ही नही ?बालको ने कहा इसे भी नही देखा ।नारद जी ने फिर पूँछा अच्छा ! बिचित्र भाषा बोसने वाले हंस को देखा है ? बालको ने कहा नही देखा महराज । नारद जी पुनः प्रश्न किया अच्छा ! तो पुंश्चली के पति को जानते हो ? बालको ने कहा मुझे आपकी बात ही नही समझ मे आ रही है तो मै क्या बताऊँ ?आप ही बताओ ?
सज्जनों नारद जी ने कहा पहले चेला बनो तो बताये । बालको को अपना शिष्य बनाकर नारद जी कहते है बच्चो ! दोनो ओर बहने वाली नदी का नाम माया है जो सृजन भी करती है और संहार भी करती है ।जिस बिल मे जाने के बाद कोई नही निकलता उसका नाम है मोक्ष । मोक्ष पाने के बाद आवागमन के चक्कर से मुक्ति मिल जाती है । और विचित्र भाषा बोलने वाले हंस का नाम शास्त्र है । शास्त्र कहते कुछ है मतलब कुछ और निकलता है । पुंश्चली माया के पति है माधव । ऐसी रहस्य मय बाते बताकर नारद जी ने उन बालको को वैरागी बाबा बना दिया । दक्ष को जब पता चला तो क्रोध बहुत आया पर शान्त रहे और पुनः एक हजार पुत्रो को प्रकट किया । नारद जी ने उन्हे भी इसी तरह कूट प्रश्नो मे उलझाकर महात्मा बना दिया । अब तो दक्ष के क्रोध का पारा हद से ज्यादा बढ गया और क्रोध मे आकर लगे नारद जी अपशब्द बोलने –
अहो असाधो साधूनां साधुलिंगेन नस्त्वया ।
असाध्यवकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्गः प्रदर्शितः ।।
दक्ष कहते है ,अरे ! भिखमंगो का रास्ता दिखाने वाले पाखण्डी नारद ! तूने मेरे नन्हे नन्हे बच्चो को जिन्होने अभी दुनिया भी नही देखी उन्हे तूने बाबा बैरागी बना दिया ?जा मेरा शाप है कि —
तस्माल्लोकेषु ते मूढ न भवेद् भ्रमतः पदम्
तुम कभी एक जगह ठहर नही सकते ।
अच्छा मित्रो विचार करिये नारद जैसे संत को दक्ष जैसे गृहस्थ का श्राप लग गया क्यो ? क्या महात्मा बाबा बनना गलत है ? जन्म जन्मान्तर के पुण्य उदय हो ,भगवान की विशेष कृपा हो तब कहीं जाकर कोई संत बनता है । तो नारद जी ने गलत क्या किया ? दक्ष का श्राप क्यूँ लग गया ?
मित्रों आप विचार करिये यदि सब संत ही बन जायेंगे या बनने लगेगे तो नये संत कहाँ से आयेगे ? आखिर संतो का भी तो जन्म किसी गृहस्थ के यहाँ ही होता है ।और अगर कोई गृहस्थ ही न हो सब ब्रम्हचारी बाबा ही हो तब संतो ,महापुरुषो और तो और भगवान कहाँ अवतार लेगें ? इसलिये हमारे सदशास्त्रो मे कहा गया है — धन्यो गृहस्थाश्रमः । गृहस्थ आश्रम धन्य है ।इसलिये नारद जी को श्राप लगा कि ज्यादा देर कहीं रुक नही सकते । नारद जी श्राप सुनकर दुखी नही प्रसन्न हो गये चलो अच्छा है ज्यादा जगह जाने को मिलेगा ,अनेको को लाभ मिलेगा ।
सज्जनों परन्तु आज नारद जी को श्राप कष्टकारी लगा ,भगवान का भजन करना चाहते है परन्तु श्राप रुकने नही देता ,लेकिन गोस्वामी बाबा ने एक बहुत ही सुन्दर बात बतायी है यहाँ पर – सुमिरत हरिहिं श्राप गति बाधी । भगवन का स्मरण करने से शाप की गति अवरुद्ध हो गयी ।
मित्रों कर्म का फल प्रारब्ध बनकर व्यक्ति के पीछे पडा है । पर क्या इस प्रारब्ध से कोई बचा ? क्योकि कहा गया है –
अवश्यमेव भोक्तब्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । जो जस करहि सो तस फल चाखा । लेकिन यहाँ संकेत है कि भाग्य से उपर भगवान है । अगर भगवान की कृपा हो जाय तो दुर्भाग्य भी सौभाग्य मे बदल जाता है ।
मान लीजिये किसी ने हत्या किया न्यायालय ने सजा सुना दी मृत्युदण्ड । दोषी ने नीचे से उपर तक सभी न्यायलय का दरवाजा खटखटाया पर दोष मुक्त नही हुआ ।लेकिन जब वही राष्ट्रपति के पास दया याचिका पहुँची तो राष्ट्रपति उसे स्वीकार करके मृत्युदण्ड से मुक्त कर सकता है । परमात्मा तो सुप्रीम पावर है वह चाहे तो कर्म फल से मुक्त कर सकता है ।
सुमिरत हरिहिं शाप गति बाधी । सहज बिमल मन लागि समाधी ।।
नारद जी ने भगवान का स्मरण किया समाधि लग गयी । देवराज इन्द्र घबराये । कहीं नारद जी की निगाह मेरी कुर्सी पर तो नही है । मित्रों कुर्सी का मोह बहुत भयंकर है । कामदेव के पास गये इन्द्र और कहा जाइये नारद जी की तपस्या भंग करिये ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 6
 
सज्जनों — जैसे -जैसे नारद जी का तप बढने लगा वैसे वैसे इन्द्र वेचैन होने लगे ।नारद की निगाह कहीं मेरे सिंहासन पर तो नही है । आजकल बहुत लोग किसी को कोई अच्छा कार्य करते देखेगे तो उन्हे अपना स्थान खतरे मे दिखने लगता है ।गोस्वामी बाबा ने ऐसे लोगो के लिये बडी सुन्दर उपमा दी है –
जे कामी लोलुप जग माही । कुटिल काक इव सबंहि डेराहीं ।।
जब कोई तप करे तो इन्द्र पहले वेचैन होने लगते है । जो कामी और लोभी हो , वह कौए की तरह सबसे डरता है । इन्द्र उपर जाकर अमर तो हो गये पर निर्भय न हो सके । अमर होकर निडरता न आये तो अमरत्व किस काम का ? और छीना हुआ अमृत अमर बना सके ,निर्भय न बना सके तो क्या आश्चर्य ?
मित्रों किसी के पास से छीनी हुई वस्तु सुख तो दे सकती है पर शान्ति नही दे सकती । जो कुछ नियम से अपने परिश्रम से मिलता है सुख और शान्ति दोनो उसी मे मिल सकते है । अनीति सुख दे सकती है शान्ति नही दे सकती । जिसे शान्ति चाहिये उसे सत्य की राह पकडनी पडेगी ।
इन्द्र ने कामदेव को नारद जी की समाधि तोडने के लिये भेजा । कामदेव अप्सराओं को लेकर हिमालय पर गये । वहाँ वसंत ऋतु का निर्माण करके नारद जी की समाधि भंग करने के अनेक प्रयास किये ,परन्तु नारद जी की समाधि नही टूटी ।
काम कला कछु मुनिहि न व्यापी । निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ।।
सहायको के साथ कामदेव ने पूरे प्रयास किये ,पर देवर्षि पर कोई प्रभाव नही पडा क्यूँ ?
जानकी नाथ सहाय करे जब कौन बिगार करै नर तेरो
भगवान जिसकी रक्षा करे ,उसका कोई क्या बिगाड सकता है । कृपा का अद्भुत चमत्कार । कोई प्रभाव नही पडा नारद जी पर । कामदेव हारकर चरणों पर गिर पडा । त्राहिमाम् त्राहिमाम्  रक्षा करो नारद जी समाधि अब भंग हुई । नारद जी ने देखा सामने कामदेव पैरो पर पडे है , पूँछा , कामदेव ! कब आये ? कामदेव कहते है , महाराज ! पहले तो छमा करो  ,बहुत देर से आया ,बडा प्रयास किया । आपकी समाधि भंग करने आया था ,छमा करो । पर एक बात मै समझ गया । नारद जी ने कहा ,क्या ?  महराज बहुत महात्मा देखे ,आप जैसा कोई नही । बस ! मित्रों नारद जी हरि गुण गावत सदैव हरि के गुण गाते रहते है पर आज अपना गुण सुनने लगे । कामदेव कहता है महराज ! धन्य है आप और आपकी तपस्या ,मै मान गया तनिक भी बिचलित आप नही हुये ? नारद जी आज अपनी प्रशंसा सुनकर फूले नही समा रहे है कहते है ऐसा है क्या ? कामदेव कहता है जी महराज । देवर्षि नारद जी ने जब अपनी प्रशंसा सुनी तो भ्रम पैदा हुआ । मित्रों भगवान के गुण सुनने से भ्रम की निवृत्ति होती है और अपनी प्रशंसा सुनने से भ्रम ही पैदा होता है ।
नारद जी कहते है केवल काम ही नही ,तुमने इतना बडा अपराध किया और मुझे देखो क्रोध भी नही आया । क्रोध भी नही है मुझमे । कामदेव ने कहा , बिल्कुल ठीक कहा आपने । नारद जी ने कहा अभी क्या ?अभी और भी विशेषतायें है । क्या महराज ? जाकर के देवराज इन्द्र से कह देना कि उनके पद का मुझे लोभ नही है । न काम ,न क्रोध और न लोभ । अच्छा महराज बिल्कुल सही कह रहे है आप ।
मित्रों विचार करिये काम क्रोध लोभ तीनो नारद जी मे नही थे पर इसमे क्या नारद जी की विशेषता है ? छूटहि सकल राम की माया। जब भगवान की कृपा को कृपा नही वरन कोई अपनी योग्यता समझ ले ऐसी स्थित मे नारद मोह होता है ।
मित्रों लोग ज्यादा प्रणाम करे ,ज्यादा प्रशंसा करे उस समय सावधानी न रखा जाय तो पतन निश्चित है । प्रशंसा से मन को आनन्द तो मिलता है परन्तु जब हम उस प्रशंसा को ही वास्तविकता समझ लेते है तो अपने पद से गिर जाते है । ऐसा नही है कि व्यक्ति को शस्त्रो से ही हराया जा सकता है । अच्छे शब्दो से भी वश मे किया जा सकता है । प्रयास के मुकाबले प्रणाम अधिक काम कर सकता है । प्रहार के बाद तो सामने वाले मे रोष आ जायेगा ,द्वेष रखेगा ,मौका देखकर प्रहार भी करेगा । इससे अच्छा है सामने वाले. को झुकाने के लिये प्रणाम कर लो ।
सज्जनों एक चिंतन और करो   नारद जी सोच रहे है शिवजी ने  तो कामदेव पर क्रोध किया था ,मै तो उनसे भी आगे निकल गया हूँ ,पर नारद जी ने यही भूल की । अवगुण पर क्रोध ही किया जाता है उसे सहलाया नही जाता । शिवजी की साधना उचित थी ,काम पर क्रोध किया यह भी ठीक था । शिवजी द्वारा काम निर्मूल हुआ था । और नारद जी द्वारा काम पराजित हुआ था । पराजित हुआ तत्व कब पुनः मौका पा कर आक्रमण कर दे कुछ कहा नही जा सकता । दुर्गुण का नाश एवं दुर्गुण को दबाना इन दोनो मे बहुत अन्तर है । गोस्वामी बाबा ने मंगलाचरण मे बहुत सुन्दर लिखा है –
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेस्मदीये
सत्यं बदामि च भवानखिलान्तरात्मा
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।।
हे प्रभू मेरे हृदय मे से कामादि दोष निर्मूल करो । नारद जी से काम देव पराजित हुआ पर जीवित रह गया । प्रिय वाक्य कह कर कामदेव को विदा कर दिया । —
नाइ चरन सिरु आयसु पाई । गयउ मदन तब सहित सहाई ।।
कामदेव इन्द्र के पास पहुँचे 
 
नारद मोह की कथा
भाग 7
 
सज्जनों , —  कामदेव नारद जी को प्रणाम करके देवराज इन्द्र के पास चले गये ।वहाँ पहुँचकर सम्पूर्ण वृतान्त बताया । सभी ने नारद जी की खूब प्रशंसा किया , मुनिहि प्रसंसि लेकिन प्रणाम नारद जी को नही वरन हरिहि सिरु नावा । देवता जानते है कि नारद जी यह विशेषता नही वरन प्रभू की विशेष कृपा है । उन्होने अपने भक्त को गौरव दिया ।
मित्रों उधर नारद जी — मैने काम को जीता है । नारद जी मन ही मन सोचते है और किसने आज तक काम को जीता है ? हाँ याद आया एक ने और जीता है। किसने ? भगवान शिव ने । मन ही मन सोचने लगे शंकर जी ने काम को जीता पर क्रोध को नही जीत पाये ,तभी तो कामदेव को जला दिया था । अरे ! वाह मैने तो काम को भी जीता ,क्रोध को भी जीता । तो चलूँ अपनी बिजय का समाचार शंकर जी को सुनाऊँ , उन्हे भी पता चले कि महराज आपका जमाना गया ,आपसे आगे है हम –
तब नारद गवने सिव पाहीं । जिता काम अहमित मन मांही ।।
अहंकार युक्त नारद जी भगवान शिव के पास पहुँचे । शिवजी ने नारद जी को देखा –आइये महराज बहुत दिनो बाद ,आइये । शिवजी ने सोचा संत आये है ।  जो सुख होत संत घर आए । कथा सुनने को मिलेगी । क्योंकि – गावहिं सुनहिं सदा मम लीला । भगवान की कथा सुनायेंगे । शिवजी ने नारद का सम्मान किया ,आसन दिया ,जलजलपान कराया और कहा महराज कुछ सुनाइये हरि चर्चा ।
गोस्वामी बाबा लिखते है , भगवान शिव जी तो राम चर्चा सुनने के लिये बैठे है ,और नारद जी सुनाने लगे काम चर्चा । नारद जी कथा कौन सी सुनाई – मार चरित संकरहि सुनावा । राम की जगह मार चरित सुनाया । रा की जगह म और म की जगह रा उलट दिया । रामकथा सुनने वाले शिवजी को काम कथा सुननी पडी । अब भगवान शिव चुप कुछ नही बोल रहे है । नारद जी को लगा शंकर भगवान कुछ बोल क्यूँ नही रहे है । मित्रों अगर श्रोता कि तरफ से उत्साहबर्धन न हो तो प्रायः वक्ता ही पूँछ लेतें है कथा कैसी लगी ? नारद जी ने भगवान शिव से पूँछा , महराज ! कथा कैसी लगी ? शंकर जी बोले , कथा कैसी लगी यह तो हम बाद मे बतायेंगे । परन्तु एक बिनती है जैसे यह कथा मुझे सुनाई है कहीं किसी और को मत सुनाना । अब ऐसी भर्त्सना की हो ही नही सकती । नारद जी ने कहा , हम क्यूँ किसी को सुनायेंगे ?  मै किसी ऐसे वैसे लोगो को थोडे कथा सुनाता हुँ ,मैने काम को जीता है ,मुझे आप , पितामह ,और भगवान नारायण के अतिरिक्त और किसी से क्या मतलब ?
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ । चलेउ प्रसंग दुराएहु तबहूँ ।।
शंकर जी ने कहा बाबा ! उन्ही को मत सुनाना । नारद जी ने कहा वैसे मै थोडे कथा सुनाउँगा ,लेकिन अगर वे सुनना चाहे ,अथवा चर्चा चलेगी तभी सुनायेंगे । शिवजी ने कहा बाबा ! अगर चर्चा भी चल जाय तो चलेउ प्रसंग दुराएहु तबहूँ चर्चा भी चल जाय तो यह प्रसंग छिपा लेना ।
मित्रों भगवान शिवजी ने नारद के हित के लिये इतना समझाया ,लेकिन नारद जी इसका गलत अर्थ लगाने लगे । मुझे लगता है शिवजी मेरी विजय से खुश नही है ,मै उनसे आगे निकल गया हूँ इसीलिये ऐसा कह रहे है —
संभु दीन्ह उपदेस हित नहि नारदहिं सुहान ।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ।।
नारद जी को लगा कि हमे क्या जरुरत है ,अब तो भगवान हमे बुलायेंगे । वैकुण्ठ मे मेरा अभिनन्दन होगा । हमने वह उपलब्धि पायी है जो आज तक कोई नही पा सका । कुछ समय बीता कोई बुलावा नही आया । नारद जी ने सोचा हो सकता है भगवान को इस घटनाक्रम की जानकारी ही न हो , मै स्वयं चलता हूँ ।   तब बिरंचि के लोक सिधाए ।  ब्रम्ह्या जी के पास गये पितामह ने भी नारद जी को समझाया पर नारद जी पर कोई असर नही हुआ ।
मित्रो – बिना प्रभु की इच्छा के कुछ होता नही । जब नारद जैसा संत भगवान शिव जी की ,ब्रम्ह्या जी की बात नही मान रहे है । नारद जी विचार करते है विष्णु भगवान के सामने मेरी प्रशंसा शिवजी को ब्रम्ह्या जी को पसंद नही है । मै उनसे आगे निकल गया हुँ , वो इन्हे पसंद नही है । जीता हूँ तो प्रशंसा होगी ,इसमे गलत क्या है ?नारद जी ने उलटा अर्थ किया । अहंकार सदैव गलत सुझाव ही देता है ,सकारात्मक विचार तो आने ही नही देता ।  और मन को व्यवस्थित करके  , और प्रशंसा सुनने के लिये नारद जी 
 
नारद मोह की कथा
भाग 8
 
सज्जनों — नारद जी ने बिचार किया भगवान के यहाँ से अब तक बुलावा नही आया , सायद उन्हे मेरी उपलब्धि के विषय मे जानकारी ही न हो । मुझे स्वयं चलना चाहिये । ऐसा विचार करते हुये नारद जी –
एक बार करतल बर बीना । गावत हरिगुण गान प्रबीना ।।
नारद जी हरिगुण गाते हुये भगवान से मिलने के लिये चले । मित्रों ध्यान दीजियेगा – हरिगुण गा रहे है लेकिन विशेषण कहाँ जुडा है – बरबीना अर्थात श्रेष्ठ वीणा । गावत हरिगुण के साथ विशेषण नही लगा , गान प्रबीना । साज भी श्रेष्ठ ,आवाज भी श्रेष्ठ । साज औबैकुण्ठ लोक की यात्रा प्रारम्भ करते है ।
 
मित्रों बहुत लोग ऐसा सोचते है ,संगीत और आवाज के कारण कथा सफल हो रही है । जबकि सच्चाई यह है कि भगवान की कथा के कारण साज और आवाज सफल हो रहे है । श्रेष्ठता तो भगवान के कथा की है ।
नारद जी छीर सिन्धु गवने मुनिनाथा पहुँचे । भगवान बडे कौतुकी है । नारद जी ने प्रणाम किया । भगवान ने आशीर्बाद नही दिया , वरन — हरषि मिले उठि रमानिकेता । प्रणाम ! नही नही । हाथ पकड लिया । नारद जी मन ही मन बहुत प्रसन्न हुये ।भगवान भी समझ गये कि पुराने वाले नारद नही रहे है इसलिये तो स्वयं खडे होकर सम्मान कर रहे है ,गले मिल रहे है । बराबरी वाले ही तो मिलते है । नारद जी मिलने के बाद नीचे बैठने लगे । भगवान बोले , वहाँ नही , यहाँ ! बगल मे ऋषिओ का आसन था  बैठे आसन रिषिहि समेता । और एक व्यंग भगवान ने किया ~ बहुते दिनन कीन्ह मुनि दाया। महराज बहुत दिनो बाद आपकी दया हुई ,कहाँ व्यस्त थे ? देखिये भगवान का व्यंग , पहले तो आप दर्शन करने आते थे ,अब तो दया करने आये होंगे दर्शन की तो अब आवश्यकता है नही । कहां रहे ? नारद जी ने कहा प्रभू अभी तक मेरे पास समय ही कहाँ  था ? भगवान ने कहा कुछ विशेष कार्य ? बस नारद जी यही मौका तो ढूँढ रहे थे । कहाँ रहे ? बोले बस महराज समाधि लग गयी । तो सरदी ,गरमी ,वर्षा ? इनकी कौन कहे , काम आया था ,हार कर गया महराज ! हारकर ? हाँ !!! लेकिन सब आपकी कृपा है । कृपा तुम्हारि सकल भगवाना । भगवान ने कहा , वाह नारद जी !
रुख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ।।
मित्रों भगवान शिव ने मना किया था फिर भी नारद जी भगवान के आगे कामचरित कह डाला ।भगवान को मन ही मन हंसी आयी कि कमाल है ! मेरा स्मरण करता था । रक्षा मै करता था । काम को जीतने के बाद मेरे सामने ही अपनी बडाई करता है ।
भगवान ने कहा , महाराज !.आप तो संत हो — ब्रम्हचारी हो ,संयमी हो ,कामदेव आपका क्या कर सकता है ? आप क्या , हिमालय की गुफा मे यदि सामान्य मानव बैठकर नारद नारद जपने लगे तो वह भी कामदेव को जीत सकता है । भगवान कहते है , अरे नारद जी ! आपके स्मरण मात्र से यह बिकार नष्ट हो जाएगें । नारद जी बडे प्रसन्न ,अब तक भगवान के स्मरण से विकार मिटते थे ,अब हमारे स्मरण से मिटेगें । नारद जी विदा हुये । भगवान समझ गये ~
करुनानिधि मन दीख बिचारी । उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ।।
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी । पन हमार सेवक हितकारी ।।
सज्जनों – भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया । लक्ष्मी माता ने पूँछा कि नारद जी मे अभिमान आ गया? भगवान ने कहा , हाँ ! तो महराज आपने तो और बढा दिया । प्रणाम नही करने दिया , हृदय से लगा लिया, बराबर बैठा दिया, और यह कहा कि बहुत दिनो बाद दया की । महराज इस तरह तो आपने नारद जी अभिमान और बढा दिया । वह आपका आज्ञाकारी अनन्य भक्त है ,आपको उनका रोग मिटाना चाहिये कि बढाना ? भगवान ने कहा देवी सुनो 
 
Shri Ramcharitmanas AyodhyaKand
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नारद मोह की कथा
भाग 9
 
सज्जनो , भगवान अपने भक्तो का विशेष ध्यान रखते है । नारद जी के अभिमान को समूल नष्ट करने के लिये ही भगवान ने उनके अभिमान को बढाया ।
मित्रों , अगर किसी के शरीर मे कोई फोडा हो जाय ,और वह डाक्टर के पास जाकर कहे कि डाक्टर साहब यह फोडा है कल से इसका उठना प्रारम्भ हुआ है । डाक्टर साहब ने एक गोली दी कहा खा लो यह बैठ जाएगा । परन्तु रोगी अगर वह गोली नही खायेगा तो वह फोडा बढ जाएगा । दूसरे डाक्टर के पास गये । मेरा फोडा ज्यादा दर्द कर रहा है । पहले की दवा यदि खा ली होती तो काहे बढता ? नही खाया इसलिये अब यह न तो बैठ सकता है और न ही अभी आपरेशन करने लायक हुआ है । इसलिये पहले मुझे इस फोडे को पकाना पडेगा तभी आपरेशन सम्भव है । मित्रों भगवान कहते है नारद के मन मे अभिमान का फोडा हुआ था । शंकर भगवान रुपी वैद्य ने उपदेश की गोली दी थी ,अगर ये सेवन कर लेते तो वह वही बैठ जाता ,लेकिन अब तो आपरेशन ही करना पडेगा । इसलिये भगवान ने नारद जी के अभिमान को बढाया कि मेरे द्वारा आपरेशन के बाद वह अभिमान रुपी फोडा सदैव के लिये समाप्त हो जाय ।
सज्जनों — प्रभु से मिलकर नारद जी ने विदायी ली ।भगवान की लीला प्रारम्भ ।
बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार ।
श्रीनिवास पुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ।।
चार सौ कोस के प्रदेश मे भगवान ने एक मायावी नगर उत्पन्न किया । मित्रों आप सब लोग जानते है गोस्वामी बाबा ने मानस मे कई बार सत जोजन शब्द का प्रयोग किया है । यह मानस का पहला सत जोजन है । गोस्वामी बाबा ने कई बार सत जोजन का प्रयोग क्यूँ किया ? आइये इसपर कुछ चिंतन करते है ।
मित्रों समुद्र को गोस्वामी बाबा सत जोजन का सागर कहते है । समुद्र मे जीव थे उन्हे भी गोस्वामी बाबा सौ जोजन का कहते है । सत जोजन तन परम बिसाला । रामजी ने मारीच को बाण मारा तो वह सत जोजन गा सागर पारा। लक्ष्मण जी आवेश मे आकर कहते है –   जोजन सत प्रमान लै धावौ । हनुमान जी को समुद्र लाघने के लिये जो नाघइ सत जोजन सागर।
मित्रों इस विषय की मानस मर्मज्ञ बहुत चर्चा करते है ,और अनेकोनेक भाव प्रकट करते है । मित्रों रमानस मे जो आंकडे है वे गणितात्मक से प्रतीकात्मक अधिक दिखायी पडते है ।
सज्जनों जब राम जी सुग्रीव से मिले तब कहा  लोगो का गणित ऐसा है कि एक और एक मिलकर दो होता है । परन्तु मेरा गणित दूसरा है , मै तुम्हारे पास आया हुँ । एक के पास एक आये तो ग्यारह होते है । हम ग्यारह है । अतः दस मुख वाला रावण मारा जाएगा ।
मायावी नगरी का निर्माण हुआ । इसका विस्तार *सत जोजन* चार सौ कौस है । चार सौ कोस तक मायावी राज है । रामजी का बाण चार सौ कोस दूर गया । मायावी क्षेत्र के विस्तार के बाहर रामजी का बाण ले जाय ,या माया के क्षेत्र से दूर हो जाय ऐसा कहने का तात्पर्य है । हनुमान जी ने सत जोजन की छलाँग लगायी ,मानो माया के क्षेत्र के बाहर कूदे तब भक्ति रुपी सीता की प्राप्ति हुई ।
बैकुण्ठ से भी सुन्दर वैसा चार सौ कोस का सुन्दर नगर है । कामदेव और रति भी सर्मिन्दा हो जाये इससे भी सुन्दर नर नारी भगवान ने बनाये । उस नगरी के राजा सीलनिधि है । विश्व को मोहित करने वाली भगवान की माया को सीलनिधि की पुत्री विश्वमोहिनी बना दिया भगवान ने ।
विस्वमोहिनी तासु कुमारी । श्री विमोह जिस रुप निहारी ।।
नारद जी घूमते घूमते नगर के समीप पहुँचे । विचार करने लगे यह आश्चर्यजनित नगर दिखायी दे रहा है । आश्चर्य क्यूँ ? क्यूँकि यहाँ पर सब अलौकिक । नारद जी को नयापन लगा कि मै सब जगह घूमता हूँ ,पर ऐसा नगर मैने पहले कभी नही देखा । यह कौन सा नगर होगा ? इतने सारे राजा महाराजा किसलिये ? इतने सारे सुन्दर नर नारी ? किसी से पूँछा , यह नगर किसका है ? जबाब मिला ,सीलनिधि राजा का । नारद जी ने पुनः पूँछा , इतने सारे राजा महराजा क्यूँ ? जबाब मिला ,महराज !  कल राजा सीलनिधि की पुत्री का स्वयंवर है ,इसलिये समस्त राजा इकठ्ठे हुये है । जिसको राजकुमारी पसंद करेगी उसी के गले मे हार पडेगा । महराज ! वह कन्या इतनी सुन्दर है कि जगत मे उसे किसी की उपमा नही दे सकते ।
नारद जी के मन मे आया , चलो राजा से मिल ले । नारद जी – *मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ । पुरबासिन्ह सब पूँछत  भयऊ ।।*
नारद जी राजभवन मे पहुँचे ।राजा सीलनिधि ने देवर्षि नारद जी का सम्मान किया । सब मायावी था ,फिर राजा ने अपनी अति सुन्दर पुत्री विश्वमोहिनी को बुलाया ।
मित्रों हमारे यहाँ एक नियम है कि जब भी दरवाजे को कोई संत महात्मा आते है तो प्रत्येक माता पिता अपनी संतानो को संत के चरण स्पर्श करने के लिये कहते है ,आज यह परम्परा समाप्त हो रही है । चरण वन्दन का बडा महत्व है । *शिव विवाह* कथा मे आप लोगो ने पढा होगा कि जब नारद जी हिमालय के यहाँ गये थे तो पार्वती जी ने नारद जी को प्रणाम किया था । यहाँ पर राजा सीलनिधि ने पुत्री को बुलाया परन्तु प्रणाम करने के लिये नही कहा और न ही विश्वमोहिनी ने स्वयं से प्रणाम किया –
आनि देखाई नारदहि भूपत राजकुमारि ।
राजा ने अपनी पुत्री को बुलाकर ,नारद जी से कहा , महराज ! यह मेरी पुत्री है ,इसी का स्वयंवर कल है । आप हृदय से विचार कर इसके गुण दोष बताइये ।
मित्रों गोस्वामी बाबा की सावधानी देखिये । बाबा जी ने माना कि कन्या पाँव छुयेगी  । नारद जी आशीर्बाद देगे तो नारद जी गुरु कहलायेंगे और कन्या शिष्या कही जाएगी । नारद जी के मन मे कन्या के लिये आकर्षण उत्पन्न करना है । राजा ने कन्या इस तरह दिखायी जैसे कोई लडके वाले को दिखाता है । नारद जी उस कन्या को देखते ही सुध बुध खो बैठे 
 
नारद मोह की कथा
भाग 10
 
सज्जनों – राजा सीलनिधि ने कहा महराज ! मेरी पुत्री का हाथ देखो । इसका भविष्य कैसा है ? कल इसका स्वयंवर है ।
मित्रों नारद जी उस कन्या को देखकर आकर्षित हो चुके थे । कन्या के हाथ को छूने का अवसर मिला । जैसे ही हाथ को स्पर्श किया वह और अधिक मोहित हो गये । होशोबवास खोकर उसके चेहरे को देखने लगे । राजा सीलनिधि कहते है ! महराज ! कन्या का हाथ देखो ?
देखि रुप मुनि बिरति बिसारी । बडी बार लगि रहे निहारी ।।
नारद जी तो उस कन्या के रुप लावण्य मे ऐसे खोये हैं कि समस्त ज्ञान ,वैराग्य सब कुछ भूल गये है । वे कन्या का हाथ देखते हुये विचार करने लगे जो इस कन्या से विवाह करेगा वह अजर अमर बनेगान,चौदह ब्रम्ह्याण्डो का स्वामी बनेगा । संसार मे अपराजित रहेगा । मित्रों वास्तविकता मे ऐसा नही लिखा था । सच्चाई यह थी कि उस कन्या की हस्तरेखा कह रही है कि चौदह ब्रम्हाण्ड के स्वामी ,जगत मे अपराजित और अजर अमर व्यक्ति से इसका विवाह होगा । पर काम भाव मे व्यथित नारद जी उल्टा पढ रहे है ।
नारद जी सोचने लगे कि कन्या इतनी सुन्दर है ,इससे विवाह करने पर अजर अमर चौदह ब्रम्हाण्ड का स्वामी बना जाता हैऔर काम को मैने जीत लिया है । फिर विवाह मे क्या समस्या है ? यदि यह कन्या किसी तरह मुझसे विवाह कर ले तो इस सुन्दर कन्या के साथ साथ अपराजिता ,अपार सम्पदा ,अमरता भी मिल जाएगी । कुछ भी हो मुझे इससे विवाह करना ही है । कब ज्ञानी मूर्ख बन जाय कुछ नही कह सकते ।
मित्रों सब विचार कर नारद जी ने राजा सीलनिधि से सत्य कुछ नही बताया ।अपितु अपने मन से इधर उधर की कुछ बाते राजा से कह दी ।
लच्छन सब बिचारि उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे ।।
नारद जी ने सोचा कि मेरे इस रुप पर तो कन्या मुझसे विवाह करेगी नही । इसके लिये सुन्दर रुप चाहिये । समय भी नही है । कुछ समय होता तो तपस्या कर लेता और सुन्दरता माँग लेता ? अब इतनी जल्दी क्या कर सकता हूँ ?
जप तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ।।
सोचते विचारते नारद जी जाने के लिये तैयार हो गये । राजा सीलनिधि ने कहा महराज !आये हो तो रुक जाओ । कल स्वयंवर. देखकर जाना । नारद जी ने कहा मेरे पास समय नही है ।
मित्रों नारद जी नगर के बाहर पहुँचे विचार कर रहे है यदि मै बैकुण्ठ लोक जाउँगा तो बहुत समय लग जाएगा । मेरा काम भगवान के अलावा कोई और बना भी नही सकता । यदि मुझे भगवान का रुप मिल जाय तो मेरा काम बन जाएगा । वह कन्या मुझे जयमाल पहना देगी । बहुत दिन नारायण – नारायण किया हूँ आज मुझे अपनी तपस्या का मूल्य चाहिए । नारद जी भगवान का स्मरण करने लगे । ‘हे प्रभू ‘ ! इस समय  मेरा हित करने के लिये आपके अतिरिक्त और कोई नही है ,मुझे इस समय तत्काल आपकी अत्यन्त आवश्यकता है —
बहु बिधि बिनय कीन्ह तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ।।
भगवान को पुकारने पर प्रभु प्रकट होते है । अच्छा भगवान आते किस लिये है मनुष्य का बन्धन मुक्त कराने की बाँधने ? प्रत्येक मनुष्य यह मानता है कि ऐसा करुँ वैसा करुँ ,परन्तु ईश्वर आपके लिये जो हितकारक होता है वही करते है आपके सोचने से नही ।
मित्रो भगवान प्रकट हुये और नारद जी को देखकर कहा महराज बहुत बिकल दिख रहे हो क्या बात है ? नारद जी भगवान को देखकर गदगद हो गये ,अब तो मेरा काम बन ही जाएगा । नारद जी ने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण कथा अत्यन्त दुखी होकर भगवान से कहा अति आरति कहि कथा सुनाई । भगवान ने नारद जी को धैर्य धारण कराया और कहा बोलो क्या दूँ ? ज्ञान ,भक्ति ,वैराग्य ? क्या दूँ ? नारद जी ने कहा , प्रभू वे सब तो बहुत मात्रा मे है इस समय उसकी जरुरत नही है । भगवान ने कहा तो फिर ? नारद जी कहते प्रभू आपन रुप देहु प्रभु मोही । आनि भाँति नहि पावौं ओही ।।
हे प्रभू इस समय मेरे लिये सबसे आवश्यक है कि आप मुझे अपना रुप दे दो । भगवान मन ही मन हंसे । क्या हो गया है नारद जी को ? रुप हमारा , विवाह तुम्हारा ! विवाह मे बहुत सी वस्तु माँगी जाती है लेकिन ये भी कोई माँगने की वस्तु है । भगवान ने पूँछा नारद ! रुप ? नारद जी कहते है हाँ प्रभू ! आनि भाँति नहि पावहु ओही । नारद जी कहते है प्रभू मै आपका दास हूँ अब जिस प्रकार मेरा कल्याण हो वह उपाय कीजिये ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 11
 
सज्जनों —- भगवान ने विचार किया कुछ भी हो नारद जी मेरे भक्त है । राम सदा सेवक रुचि राखी । नारद जी सेवक है । आज अगर हम नारद जी की रुचि रखते है तो नारद जी का जीवन नष्ट हो जायेगा । मित्रों तब तक भगवान की माया की ऐसी प्रेरणा हुई कि नारद जी रुचि की बात नही करते है । वरन कहते है —
जेहि बिधि होहु नाथ हित मोरा । करहुँ सो बेगि दास मै तोरा ।।
जिसमे मेरा हित हो । भगवान ने सोचा बन गयी बात । अब मुझे वही करना है जिससे नारद जी का कल्याण हो ,हित हो । जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र को अहितकारी सामान माँगने पर भी नही देता उसी प्रकार भगवान भी अपने भक्त की रुचि नही वरन हित का ही उपाय करते है । भगवान ने कहा नारद जी तुम चिन्ता काहे करते हो जेहि बिधि होहि परमहित । भगवान कहते है तुम केवल हित की बात करते हो मै तुम्हारा परमहित करुँगा ।
मित्रों भगवान कहते है नारद जी !  अगर रोगी डाक्टर से कुपथ्य (न खाने योग्य नुकसान दायक सामग्री) माँगे तो डाक्टर वह नही देता । मै भी इसी प्रकार –
एहि बिधि हित तुम्हार मै ठयऊ । कहि अस अतंरहित प्रभु भयऊ ।।
नारद जी तो भगवान के द्वारा इतना सुनते ही कि *जेहि बिधि होहि परम हित* बस काम बन गया और मन ही मन स्वयंवर मे पहुँचकर माला भी पहन लिया । शरीर तो वही रह गया पर मन गायब इसलिये भगवान की गूढ बाते नारद जी की समझ मे नही आयी । भगवान के जाते ही नारद जी भी स्वयंवर के लिये चल पडे । भगवान ने नारद जी को जो सुन्दर बनने आये थे ,बन्दर बना दिया बन्दर का चेहरा । लेकिन एक बात है मित्रों भगवान ने नारद जी की हंसी नही करायी । जिसने भी देखा नारद जानि सबहि सिरु नावा । बन्दर की जो आकृति थी या तो भगवान ने देखी या नारद जी ने बाद मे देखी ,विश्वमोहिनी ने देखी और शिवजी के दो गण थे उन्होने देखी । शंकर जी ने दो गण पीछे लगा रखे थे , रोका था मैने कि भगवान से मत कहना लेकिन नारद जी मानने वाले कहा ? पीछे लगे रहो और पल पल का समाचार मुझे देते रहना । रुद्रगणो ने समाचार दिया महराज नारद जी बन्दर बन गये है । भगवान शिव ने कहा अभी लगे रहो देखो हित क्या हुआ बन्दर बनने मे ? रुद्रगणो  ने भगवान से कहा नारद जी का बन्दर वाला चेहरा मुझे भी देखना है । भगवान ने कहा वह गोपनीय है । गुप्त है । हर किसी को नही दिखायी देगा । रुद्रगणो ने कहा महराज हम तो संवाददाता है मुझसे क्या गोपनीय ? हमे तो लाइब प्रसारण करना है शिवजी को । भगवान ने कहा तुम भी देखो ।
प्रातः काल नारद जी सभामंडप मे पहुँचे । सीलनिधि का सभामंडप पूरा भर गया । नारद जी यह मानते है कि मै भगवान विष्णु जैसा रुपवान हूँ । जैसे ही नारद जी ने प्रवेश किया सब लोग खडे हो गये । आइये स्वागत है , आइये सब लोग ऐसा इसलिये कहते है कि संत आये है सम्मान तो करना ही चाहिये । पर नारद जी यह मान लिया कि मै भगवान विष्णु जैसा सुन्दर हूँ इसलिये लोग मेरा सम्मान कर रहे है । लोग दर्शन करने के लिये खडे हो गये पर नारद प्रदर्शन करने के लिये आये थे । दोनो मे बिरोधाभास था ।नारद जी का यह विचार था कि मुझे ही सब देख रहे है  अतः निश्चित रुप से मै विष्णु हूँ । फिर वे पहली पक्ति मे पहली कुर्सी पर बैठ गये । पहले इसलिये बैठे की सबसे आगे मै ही रहूँ नही हो सकता है कि कन्या मुझे देखने के पहले ही किसी और को वरमाला न पहना दे । गोस्वामी बाबा कहते है इस नारद जी की स्थित ऐसी थी कोई देख ले तो उसे नारद जी पर दया आ जाय । और उन्ही के बगल दोनो रुद्रगण भी बैठ गये ।
तहँ बैठे महेस गन दोऊ । विप्रवेष गति लखइ न कोऊ ।।
दोनो रुद्रगण ब्राम्ह्यण वेष मे थे और नारद जी सुने ऐसी  आपस मे चर्चा कर रहे थे । हमने तो कई राजकुमार देखे पर धन्य है इस राजकुमार की जननी को जिसने ऐसा सुपुत्र दिया । दूसरा गण कहता है , मुझे तो नही लगता कि इस राजकुमार को देखने के बाद विश्वमोहिनी किसी और को माला पहनायेगी । इस राजकुमार को छोडकर सब को निराश होना पडेगा ।
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ।।
मित्रों इस प्रकार दोनो रुद्रगण बातचीति कर रहे थे । यह सब सुनकर नारद जी मग्न हो  गये और पक्का निश्चय हो गया कि मै ही सबसे रुपवान हूँ ।
मित्रों जिसका पतन होने वाला हो तो ज्यादा प्रसंशा होती है । अहंकार मजबूत होता है और हरि स्मरण भी यदि भूल गये तो गये काम से । वैसे तो प्रभू स्मरण सदैव करना चाहिये लेकिन ऊँचाई पर पहुँचने पर विशेष आवश्यक है । ऊँचाई पर भगवान ही पहुँचाते है । वही स्थायित्व प्रदान कराते है । भगवान का स्पष्ट कथन है , मान भी मै देता हुँ ,ऊँचाई भी देता हूँ , निर्वाह भी मै करता हूँ । क्योकि ऊँचाई पर से साधक का पतन होने मे देर नही लगती ।
मित्रों नारद जी आज विष्णु भगवान को भूल गये ,शिवगणो के मजाक को प्रशंसा मानकर गर्व से फूल गये । तभी संखनाद हुआ ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 12
 
सज्जनों —-  विश्वमोहिनी वरमाला लेकर अपनी पसंद के वर के लिये सखिओं के साथ ,उनके बीच चन्द्रमा की तरह शोभित होती हुई धीरे धीरे सभा मंडप मे प्रवेश करती है ।नारद जी तैयार हो गये । सखिओ का समूह नारद जी तरफ गया । लोग नारद जी को नारद जी मानते है ,पर नारद अपने आप को भगवान विष्णु मानते है । जैसे ही विश्वमोहिनी ने नारद जी तरफ दृष्टि उठाई तो क्या देखती है –
मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ।।
विश्वमोहिनी ने नारद जी को वानर जैसा देखा । वानर जैसा मुँह और विचित्र भयंकर शरीर । विश्वमोहिनी क्रोध मे भर गयी । नारद जी ने माना कि मै नर से नारायण हो गया हूँ ,परन्तु अहंकार ने नारद को नर से वानर बना दिया ।
मित्रों आजकल बहुत से स्वघोषित भगवान बने घूम रहे है । एक बात निश्चित जान लो जिसने भी भगवान बनने का स्वांग रचा प्रयास किया ,उसका पतन निश्चित है । जब नारद जी नही बचे तो आजके तथाकथित भगवान कैसे बचेंगें ।
मित्रों विश्वमोहिनी इतनी क्रोधित हुई कि सखिओं से कहा , मेरे पिता जी से कहकर इसे धक्के मार कर बाहर कर दो । यह मेरे विवाह मे अपशकुन बना हुआ है । वानर जैसा मुखाकृत वाला यह कौन है ? व्यथित विश्वमोहिनी ने उस पंक्ति को ही छोड दिया और दूसरी ओर चली गयी ।
सज्जनों अब नारद जी परेशान हो गये । विचार किया , विश्वमोहिनी ने मुझे देखा नही क्या ? कोई बीच मे तो नही आ गया ? नारद जी उँचे उठ उठकर झांकने लगे –
पुनि पुनि मुनि उकसंहि अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसुकाहीं ।।
शिवगणों ने कहा,  महराज  ! धीरज रखो । विश्वमोहिनी चक्कर लगाकर वापस आयेगी । आपको ही वरमाला पहनायेगी , क्योकिं आप जैसा अति सुन्दर तो और कोई है ही नहीं ।
मित्रों विचार करिये विश्वमोहिनी ने नारद जी वाली  पंक्ति क्यों छोड दिया ? उस कन्या ने यह समझा कि जिस पंक्ति की प्रथम कुर्सी पर वानर बैठा हो उस लाइन मे नर हो सकते है क्या ?  मित्रों जो भी हो विश्वमोहिनी तो माया है । और नारद जी संत है । माया संत के सामने देख ही नही सकती । पर संत के साथ मे हो तो माया से आप भी बच सकते हो । माया कितनी भी प्रबल हो वह संतो की नजर का सामना नही कर सकती । यह संत की महिमा सतसंग की महिमा है ।
मित्रों अनेक राजकुमार बैठे थे ,राजा बैठे थे ,और नारद जी बेचैन थे । बीच मे भगवान विष्णु राजकुमार का रुप लेकर बैठे थे । विश्वमोहिनी ने वरमाला उनके गले मे डाल दी और विश्वमोहिनी का हाथ पकडकर भगवान विष्णु लेकर चले गये —
*दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृप समाज सब भयउ निरासा ।।*
राजाओ का समाज निराश हो गया । भगवान विष्णु विश्वमोहिनी को लेकर चले गये । नारद जी कहीं भी चैन से नही रहे । माया ईश्वर की है  । भगवान ने स्पष्ट कहा है ,  माया मेरी है और मै माया का स्वामी हूँ । जो ईश्वर की वस्तु हो उसे प्राप्त करने का विचार सबसे बडी अज्ञानता है । ईश्वर की माया हमारे गले मे माला नही पहनायेगी । यह माया तो हमारी माँ है । माँ का दूध विकास के लिये होता है ,उसका दूध बिकता नही है । इस प्रकार माया का प्राणी उपभोग करता है ,उसका उपयोग नही । जब प्राणी उसका उपभोग करता है तो उसकी दशा नारद जी की तरह होती है । नारद जी इसी सोच मे डूबे है कि भगवान विष्णु विश्वमोहिनी को लेकर चले गये । सम्पूर्ण समाज मे उदासी छा गयी । शिवगणो से नही रहा गया , इसलिये उन्होने नारद जी से कहा –
तब हर गन बोले मुसकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ।।
शिवगणों ने कहा महराज ! आप व्यर्थ मे उँचे नीचे हो रहे हो ,आप महात्मा हो । आपके पास दर्पण न हो तो गाँव के किनारे तालाब मे अपना मुख देखिये । अब इनसे कोई पूँछे कि आप पहले नारद जी को यह सलाह नही दे सकते थे ? असल मे सलाह देने वाले सलाह तभी देते है जब किसी काम के न रहे आप । मित्रों दर्पण एक बिचित्र वस्तु है । हम घर मे उसे सामान्य वस्तु मानते है , पर भयंकर वस्तु है । शीशे मे अपनानमुख देखने मे आनन्द होता है पर अगर कोई दूसरा कह दे जरा अपना चेहरा तो शीशे मे देख तो फिर युद्ध होता है । दूसरे को सीसा देखने को कहने वाला रावण बनता है । दशरथ और दशानन मे सचमुच प्रकृत भेद यही है । दशरथ जी स्वयं दर्पण मे अपना चेहरा देखते है और रावण दूसरो को सीसे मे देखने के लिये कहता है ।
नारद जी ने जैसे जल मे अपना प्रतिबिम्ब देखा ?
 
नारद मोह की कथा
भाग 13
 
सज्जनों —- नारद जी का उपहास करते हुये शिवगणो ने कहा , अपना चेहरा  शीशे मे देखो ।’ नारद जी ने जल मे अपना मुख देखा और देखते  क्रोध मे आग बबूला हो गये —
होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ ।
हँसेउ हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ।।
आपने एक संत का अपराध किया है । अब आगे से किसी महात्मा का अपराध न करो इसलिये मै तुम्हे श्राप देता हूँ कि तुम दोनो भयंकर राक्षस बनोगे ।शिवगण कांपने लगे । कुछ भी संत का अपराध हुआ है ।
मित्रों एक बात निश्चित मान लो यदि संत से कोई भूल भी हो जाय तो उसे सुधारने का काम भगवान का है । समाज को उनका मजाक नही बनाना चाहिये । समाज की एक मर्यादा है । संत की कोई हंसी उडाये तो वह राक्षसी वृत्ति वाला बनता है । यह और बात है कि भगवान निर्णय करे और करते भी है । जिसने भी अनीति अत्याचार ,ढोंग ,पाखण्ड किया है भगवान ने उनका सत्यानाश किया है । संसारिक गृहस्थ को संतो का उपहास नही करना चाहिए । ऐसा मेरा स्पष्ट मत है ।
क्रोधित नारद जी गाँव के बाहर तालाब के पास आये । तालाब के जल मे अपना चेहरा देखा तो वानर जैसा मुख देखा –
पुनि जल दीख रुप निज पावा । तदपि हृदय संतोष न आवा ।।
नारद जी क्रोध मे आ गये , मेरी यह दशा ? दूसरी बार अपना मुख देखा तो अपना असली चेहरा दिखायी दिया पर क्रोध नही गया ।असली रुप मे आने पर भी उनका क्रोध कम होने की जगह और बढ गया । प्रभु ने मेरी यह दशा की ?रात दिन मै उनका नाम जप करता रहता हुँ । नारायण नारायण करके तीनो लोक मे उनको प्रसिद्ध करने वाला मै ही हूँ और उन्होने मुझे वानर बनाया । क्या क्या नही किया मैने उनके लिये फिर भी तनिक नही सोचा ? कुछ भी हो मै उनसे बदला लूँगा या तो उन्हे श्राप दूँगा और यदि श्राप नही दे पाया तो मै स्वयं प्राण त्याग दूँगा –
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोरि उपहास कराई ।।
मित्रों यह परिस्थिति बहुत खतरनाक होती है । किसी को एकान्त मे अगर अपमानित कर दो सायद वह उस अपमान को भूल भी जाय । पर वही अपमान परिवार वालो या समाज के बीच मे हो जाय तो अपमानित मनुष्य मरने मारने पर उतर जाता है फिर उसको रोकना असम्भव है ।
मित्रों नारद जी विचार करते है मै जा रहा हुँ भगवान को ढूँढने ? नारद जी के जीवन मे बहुत बडी मुश्किल है ,उन्होने काम को प्रेम किया ,भगवान को अपशब्द कहा । शिवजी ने रामजी से प्रेम किया और काम का नाश किया ।नारद जी विपरीति स्थित मे है ।नारद जी चल पडे अभी कुछ ही दूर गये है तो देखते क्या है –
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ।।
रास्ते मे भगवान विष्णु मिल गये और उनके साथ वही राजकुमारी और भगवती लक्ष्मी जी थी । भगवान ने जैसे नारद जी को देखा मुस्करा के कहते है नारद जी !
बोले  मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ।।
भगवान ने कहा , नारद जी क्या हुआ ?,तुम्हारा चेहरा लटका क्यूँ है? ,जा कहाँ रहे हो ? क्रोध मे भरे नारद जी भगवान के वचन को सुनते ही जैसे जलती अग्नि मे कोई घी डाल दे ,वही स्थित नारद जी की हो गयी । नारद जी कहते है महराज ! अब तक मै आपकी कीर्ति के गुणगान गाता रहता था और आज तक मैने आपके दुर्गुण नही कहे । संसार मे आपकी पूजा होती है ,आपको लोग श्रेष्ठ मानते है तो उसका कारण मै हूँ । महराज ये मत समझना कि तुम्हारी कमजोर कडी मुझे पता नही है ,सुनना चाहते हो तो जान लो आज तक आपके गुण गाने वाला नारद आज से आपके अवगुणो का गान करेगा । कौन सा अवगुण ?
असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु ।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट व्यवहार ।।
समुद्र मंथन करके कपट से असुरो को सुरा पिलायी । शंकर को बरगलाकर विष पिला दिया । देवताओ को अमृत पिलाया । कौस्तुभमणि और लक्ष्मी जी को तुम ले गये । महराज ! आप बडे स्वार्थी हो , आपका व्यवहार कपटमय है ।आपके उपर कोई सत्ता नही है । आप परम स्वतन्त्र हो ,आप अपनी मनमानी करते रहते हो ,अच्छे को खराब एवं खराब को अच्छा कहते हो । आपके मन मे हर्ष शोक नही है क्योकि शुभासुभ कर्म आपको बाँध नही सकते ,इसलिये मानमानी करते हो । मित्रों  इस प्रकार अनेकोनेक अपशब्द नारद जी कहने लगे । ठीक है भैय्या वे भक्त शिरोमणि है और वे भगवान है , नारद जी कहे और भगवान सुने ।हम सबको भगवान तो निन्दा सुनना ही नही चाहिये ,मानस मे बाबा ने कहा है –
हरि हर निन्दा सुनहि जो काना । होहि पाप गोघात समाना ।।
भगवान नारद जी की बात को धैर्य पूर्वक सुन रहे है । लक्ष्मी जी से नही रहा जाता और वे कहती है 
 
नारद मोह की कथा
भाग 14
 
सज्जनों — नारद जी द्वारा अपशब्दो को भगवान मुस्करा के सुन रहे है । लक्ष्मी जी से रहा नही जाता । उन्होने कहा , भगवन ! ये इतनी असभ्य भाषा बोल रहे है और आप चुपचाप मुस्करा रहे है । कुछ जबाब तो दीजिये ?भगवान कहते है देवी ! इस मामले मे तुम्हे टांग अडाने की कोई आवश्यकता नही है । यह भक्त और भगवान के बीच का मामला है हम दोनो ही तय कर लेगें । एक बात और मुस्कराने का कारण तो सबके विवाह मे गाली मिलती है ,अब इस विवाह मे ससुराल मे गाली नही मिली तो यहाँ रास्ते मे मिल रही है ।इसमे कौन सी बडी बात है ।
भगवान कहते है देवी ! सच बताऊँ , अब तक मैने नारद जी के मुख से प्रशंसा ,प्रार्थना ही सुनी है अपशब्द सुनने का मौका तो पहली बार मिला है । सुन लेते है ।
मित्रों भगवान ने इस प्रसंग के माध्यम से  समस्त मानव जाति को एक बहुत बडा सूत्र दिया है , “जिसे स्तुति प्रार्थना प्रशंसा सुनने की आदत हो उसे अपशब्द ,आलोचना ,निन्दा सुनने को तैयार रहना चाहिये । प्रशंसा सुनकर फूल कर कुप्पा नही होना और अपमान होने पर मुँह लटकाकर बैठना नही चाहिए ।
निंदा अस्तुति उभय समममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रियगुन मंदिर सुख पुंज ।।
सज्जनों , नारद जी का क्रोध बढता गया । भगवान विष्णु को उन्होने श्राप दिया –
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ।।
नारद जी कहते है महराज ! आपने मुझे शरीर तो मानव का दिया इसलिये मेरा श्राप है कि आपको वही शरीर लेकर पृथ्वी पर जाना होगा ।दूसरा श्राप यह है कि *कपि आकृत तुम्ह कीन्ह हमारी* तुमने मुझे बानर बनाया यही बानर तुम्हारी सहायता करेंगे । जब मानव बनकर पृथ्वी पर जाओगे तब बानर के अतिरिक्त और कोई आपकी मदद नही करेगा । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी । महराज इतना ही नही तुमने मुझे स्त्री के लिये तडपाया है न । एक स्त्री का वियोग कितना भयंकर होता है ?वह आप अनुभव करोगे ।मेरा श्राप है कि तुम्हे  भी मेरी तरह नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ।। पत्नी वियोग मे तडपना व , रोना पडेगा ।
मित्रों इस तरह तीन श्राप नारद जी ने भगवान को दिया ।  भगवान हंस रहे है । नारद जी ने कहा , महराज मै श्राप दे रहा हुँ ,अपशब्द बोल रहा हूँ और आप हंस रहे है ? भगवान ने कहा , नारद जी तुमने कहा ! परम स्वतन्त्र न सिर पर कोऊ । स्वतन्त्र तो हूँ अब बताओ क्या करुँ ? नारद जी ने कहा महराज श्राप दिया हूँ । भगवान ने कहा ठीक है तुम कहते हो *न सिर पर कोई* तो तुम्हारे समस्त श्राप मै सिर पर ही ले लेता हूँ –
श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्ह
श्राप को सिरोधार्य करके भगवान ने नारद जी के मन से माया का परदा हटा दिया  ~
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ।।
भगवान ने माया हटा दी । अब वहाँ पर  *नहिं तहँ रमा न राजकुमारी* राजकुमारी भी नही ,रमा भी नही । केवल भक्त और भगवान खडे थे । नारद जी के मन मे से माया का आवरण चला गया । नारद जी होश मे आये । गोस्वामी बाबा कहते है भयभीत बने नारद जी भगवान के चरणों मे गिर पडे
तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारित हरना ।।
मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ।।
हे प्रभू !छमा करो ! आप दीन दयाल हो । मेरा श्राप गलत कर दो । आपके आशीर्बाद से मै जितेन्द्रिय बना था भला मुझे विवाह की क्या आवश्यकता थी ? त्राहिमाम् त्राहिमाम ,शरणागतम् नारद जी बारम्बार पैरो पर पडकर छमा याचना कर रहे है ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 15
 
सज्जनों — नारद जी पश्चाताप की आग मे जलते हुये बारम्बार छमा याचना कर रहे है । भगवान ने नारद जी से कहा , हे देवर्षि ! आप श्राप कैसे दे सकते हो ? यह तो मेरी इच्छा थी । मम इच्छा कह दीनदयाला । नारद जी मुझे तो कौतुक करना ही था यह सब मेरी लीला थी । नारद जी , मेरी अवतार लेने की इच्छा थी , तुम्हारे बचन तो बहाना बन गये ।
मित्रों नारद जी बच्चो की तरह रोते हैं , प्रभू !आपकी लीला तो ठीक है पर मैने आपको इतने अपशब्द कहे , आपको भले ही बुरा नही लगा , परन्तु मेरा उद्धार कैसे होगा ? मेरी अन्तरात्मा कैसे शान्त होगी ? मुझे तो बार बार यही कचोटेगा कि मैने अपने आराध्य को इतने दुर्वचन कहे है ।
भगवान कहते है नारद जी तुमने सबसे बडी गलती है जो तुमने भगवान शिवजी का कहना नही माना । इसलिये तुम जाकर भगवान शिवके सतनाम (सौ नामो) का जप करो ,इसी से तुम्हारा कल्याण होगा ~
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरत विश्रामा ।।
नारद जी भगवान शिव का नाम जपने से तुम्हारे मन को शान्ति मिलेगी । मित्रों कोई आज भी सच्चे हृदय से भगवान शिव के नामो का जप करे तो निश्चय ही हृदयगत शान्ति मिलती है ।
मित्रों एक बात निश्चित है भजन करने से काम जीता जा सकता है ,अहंकार नही । अहंकार जीतने के लिये भगवान शिवजी का भजन प्रत्येक साधक को करना चाहिए । और एक बात निश्चित जान लो देवो मे भेद नही करना चाहिए । मै वैष्णव हूँ ,मै शैव हूँ ,मै शाक्त्य हूँ ऐसा भाव उचित नही । आराध्य कोई एक हो , दृढ विश्वास उसी पर रखो अपमान किसी का न करो । भगवान स्पष्ट कहते है मुझमे और शिवजी मे कोई भेद नही है –
कोउ नहि सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ।।
भगवान कहते है नारद जी एक बात और जान लीजिये बिना शिवकृपा के साधक मेरी भक्ति नही पा सकता । जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ।।
नारद जी भगवान को प्रणाम करके शिव आराधना करने हेतु चल पडे ।रास्ते मे दोनो शिवगण मिले । दोनो आकर नारद जी से प्रार्थना करते है , महराज ! हम ब्राम्हण नही हैं हम तो भगवान शिव के गण है । हमने आपका उपहास किया ,उसका फल मुझे मिल गया ,आपने राक्षस होने का श्राप दे दिया । आप तो संत हो मेरे अपराध को छमा करो ।
मित्रों नारद जी को दया आ गयी । उन्होने कहा , आपको राक्षस तो बनना पडेगा । त्रेतायुग मे तुम दोनो रावण ,कुम्भकर्ण बनोगे । इसका सबसे बडा फायदा यह है कि आपको मारने के लिये भगवान को अवतार लेना पडेगा । भगवान के हाथो तुम्हारी मृत्यु होगी । ऐसा आशीर्बाद देकर नारद जी तप करने चले गये ।
सज्जनों रामजी के अवतार का तीसरा कारण याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को बताते है और भगवान शिव जी माता पार्वती को बताते है कि नारद जी के श्राप के कारण ही भगवान ने अवतार लिया ।अब हम चौथे कारण की तरफ अग्रसर होते है । स्वयंभू मनु और सतरुपा को वरदान जिसके कारण भगवान का अवतार हुआ ।
नारद मोह की कथा
भाग 16
 
सज्जनों — भगवान शंकर जी माता पार्वती से कहते है! अब भगवान के अवतार का एक कारण और सुनो — जिस कारण से जन्म रहित , निर्गुण और रुप रहित ब्रम्ह्य अयोध्या के राजा बने । याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी से कह रहे है –
स्वायंभू मनु अरु सतरुपा । जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ।।
स्वंयभू मनु और शतरुपा रानी  जिन्हे सृष्टि के आदि दम्पत्ति कहा जाता है । ब्रम्ह्या जी ने इन दोनो को अपने दाहिने और वायें अंग से उत्पन्न करके मैथुनी सृष्टि करके प्रजा वृद्धि के लिये आदेशित किया । उनकी संताने भी महान थी । उनके दो पुत्र महराज उत्तानपाद और प्रियव्रत हुये । उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव हुये जिनके गुणो को हम सब जानते है । जिन्होने पाँच वर्ष की अल्पायु मे अपने दृढ निश्चय एवं अटल श्रद्धा के फलस्वरुप छ मास मे भगवान का दर्शन प्राप्त कर लिया । मनु महराज की एक पुत्री जिनका नाम देवहुति था जिनका विवाह कर्दम ऋषि से हुआ । उनके यहाँ स्वयं भगवान कपिल का अवतार हुआ । भगवान कपिल ने संसार को सांख्यशास्त्र का दिब्य उपदेश दिया । गोस्वामी बाबा लिखते है –
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ।।
मित्रों ये सब कथा भागवत जी मे विस्तार से वर्णित है । जिसके कुल मे स्वयं भगवान कपिल का अवतार हुआ ऐसे मनु सतरुपा का दिब्य जीवन है । मनु महराज अति नीतिवान और गौ ब्राम्हण प्रतिपालक थे ।
सज्जनों एक दिन मनु महराज घर मे बैठे थे । उन्हे विचार आया कि इस तरह घर मे बैठा रहूँगा तो – होइ न बिषय बिराग भवन बलत भा चौथपन । श्रीरामचरित मानस मे दो राजाओ का वर्णन है – महाराज श्री जनक जी का एवं महाराज श्री मनु का । पर अद्भुत है कि महराज मनु घर छोडकर वन गये और जनक जी के घर छोडकर वन जाने का कोई वर्णन नही मिलता , वे महल मे ही रहे । क्यों ? क्योंकि जनक जी , सहज बिराग रुप मन मोरा उन्हे सहज बिराग प्राप्त है । मनु महराज को वन इसलिये जाना पडा क्योकि वे कहते है , होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथ पन । सहज वैराग्य हो वन जाने की क्या आवश्यकता है ?
मित्रों सिर्फ वन मे जाने से ही वैराग्य हो यह जरुरी नही है । हम घर मे रहकर भी संसारिक वस्तुओं से दूरी बना ले ,तो घर मे भी वैराग्य सम्भव है ।
महाराज मनु सोचते है पूरा जीवन निकल गया चौथा पन आ गया अब मुझे स्वयं इस संसारिक जाल से मुक्त होकर हरि चरणों का आश्रय ले लेना चाहिये । अगर मै यहाँ रहता हुँ तो यह संसारिक आकर्षण मुझे अपनी तरफ खींचता रहेगा इसलिये मुझे इस मायावी संसार का त्याग कर ही देना चाहिये ।
आजके परिपेक्ष्य मे हम विचार करे कि जीवन के अन्तिम छड तक हम इसी चिन्ता मे लगे रहते है कि कितना कमाया और कितना कमा सकता था । अपने लौकिक दायित्व को पूर्ण करने के बाद अपने वास्तविक लक्ष्य को भी याद रखो । जब संतान योग्य हो जाय तो उन्हे पदभार सौंप जंजाल से मुक्ति ले लो अन्यथा वे स्वयं आपको मुक्त करके पदभार ले लेंगे ।
महराज मनु  ने तय कर लिया कि अपनी संतानो को राज्य सौंपकर पत्नी के साथ हरि दर्शन  के लिये निकल जाउँगा । मनु महराज राजा थे उन्हे किसी से आदेश नही लेना था और न ही किसी परिवारिक लोगो ने जाने के लिये बिवस किया था परन्तु वे स्वयं स्फुटित हुये थे । अवस्था होने पर बुजुर्गो को समझना चाहिए कि अब मुझे संसारिक कार्य समाप्त करके भगवान का स्मरण करना है । मनु महराज ने अपनी पत्नी से कहा , मेरी इच्छा है कि संतानो को राज्य सौंपकर हम  तपोवन मे चले । सतरुपा ने कहा , मै आपकी परछाईं हूँ आप आदेश करो । पति पत्नी ने निर्णय लिया । बस ! भक्ति के मार्ग मे और ईश्वर के मार्ग मे जब एक साथ निर्णय पति पत्नी करते है तो अति आनन्द होता है
 
नारद मोह की कथा
भाग 17
 
सज्जनों — महराज मनु एवं महरानी शतरुपा ने एक साथ एक मत से गृह त्याग का निर्णय ले लिया । जीवन की गाडी मे पति पत्नी रथ के दो पहिये की तरह होते है ,अगर दोनो पहिए साथ साथ चलते है तो जीवन रुपी रथ सरपट दौडता है । पत्नी का साथ मिलने पर निर्णय लेने मे आसानी होती है । आजके अत्याधुनिक पढे लिखे समाज मे अधिकांस पति पत्नी मे मेल नही होता । बस ! मजबूरी मे जीवन की गाडी को खींचते रहते है । छोटी छोटी बातों मे मामला बिगडता है । मानस मे गोस्वामी बाबा ने कितना स्पष्ट समझाया है कि जिनके जीवन मे समस्यायें हो उन्हे कथा सुनने की विशेष आवश्यकता है । जो आपके गृहस्थ आश्रम को सुधारने के लिये कथा कर सकती है वह दूसरा साधन नही कर सकता ।
मित्रों मनु महराज ने पत्नी से बात की । पत्नी तैयार हो गयी । जब आयु हो जाए तो समझ बूझ से संतानो को सब सौंप देना चाहिये । नही देंगे तो संतान छीन लेगी । कलियुग की संतानो का कोई भरोसा नही है । पिता का धन  प्रयोग करे तब तक तो ठीक है आज तो पिता को ही मार कर मृतक आश्रित मे नौकरी ले रहे है ।
मनु महराज और उनकी पत्नी ने हरिभजन का निर्णय लेकर उत्पानपाद को राज दे दिया और घर से निकल पडे ।राजा और रानी वहाँ से निकलकर अनेक तीर्थो मे भ्रमण करते करते गोमती नदी के तट पर पहुँचकर ,निर्मल जल मे स्नानकर संतो से मन्त्र दीक्षा एवं आशीर्बाद लेकर जप करने लगे ।
द्वादस अक्षर मंन्त्र पुनि जपहिं सहित अनुराग ।
बासुदेव पद पंकरुह दम्पति मन अति लाग।।
मित्रों भक्ति उसे कहते हैं जिसमे पति पत्नी का मन्त्र एक हो ,विचार – निर्णय एक हो । दोनो अखण्ड जप करते है । कुछ वर्ष कन्दमूल खाकर जप करते है । अगले कुछ वर्ष कन्दमूल को भी भुला दिया , छोडा नही छूट गया । छोडना और छूटने मे बहुत अन्तर है । भजन मे इतने डूब गये कि सब कुछ भूल गये । शरीर सूखने लगा , हरिदर्शन की लालसा बढने लगी । मनु महराज के नेत्र भीगने लगे । जब तक रामजी का दर्शन नही होगा तप नही छोडूँगा । एक अस्थिपिंजर खडा रह गया ,अखण्ड लगन लग गयी । ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय इस मन्त्र का निरन्तर जप चल रहा है । मनु महराज के हृदय मे एक ही संकल्प है कि –
उर अभिलाष निरंतर होई । देखिअ नयन परम प्रभु सोई ।।
कौन से प्रभु जिनसे ब्रम्ह्या विष्णु महेश उत्पन्न होते है जो निर्गुण अखण्ड अनन्त और अनादि है और जिनका चिंतन ब्रम्ह्यज्ञानी सदा करते रहते है ।
मनु महराज इस तरह तप करते हुये केवल जल के आहार पर छ हजार वर्ष बीत गये । फिर सात हजार वर्ष वायु के आधार पर रहे । वायु का भी त्याग करके दस हजार वर्ष दोनो पति पत्नी एक पैर पर खडे होकर तप करते रहे । ब्रम्ह्या विष्णु महेश कई बार बरदान देने के लिये आये —
*बिधि हरि हर तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ।।*
त्रिदेवो ने मनु महराज को बारम्बार वरदान का लालच दिया परन्तु परम धैर्यवान राजा अपने पद से बिचलित नही हुये ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 18
 
सज्जनों — महराज मनु एवं महारानी शतरुपा की अखण्ड साधना से भगवान प्रसन्न हुये और आकाशवाणी हुई –
मागु मागु बरु भै नभ बानी । परम गभीर कृपामृत सानी ।।
मित्रों जब आकाश मे से आकाशवाणी हृदय मे उतर गयी तो मनु महराज एवं शतरुपा का शरीर हृष्ट पुष्ट हो गया । जैसे आज ही घर से आये हों । मनु महराज और शतरुपा नाँचने लगे । आकाशवाणी ने कहा , माँगो ! क्या दूँ ? मनु महराज ने कहा , हे प्रभू ! आप तो वरदान देने वाले हो । मेरी इच्छा को आप पूर्ण करोगे ? भगवान ने कहा निश्चित ही । मनु महराज ने माँग की –
जो भुसुंडि मन मानस हंसा । सगुन अगुन जेहि निगम प्रशंसा ।।
देखहिं हम सो रुप भरि लोचन ।
कृपा करहुँ प्रनतारित मोचन ।।
मनु महराज कहते है प्रभू ! मै आपके परम लावण्य स्वरुप जो कि भगवान शिव के मन मे बसता है ,भुसुण्डि बाबा के मन रुपी मान सरोवर मे नित्य विहार करने वाले एवं सगुन निर्गुण कहकर वेद द्वारा प्रसंसित रुप का दर्शन करना चाहते है । मेरी इच्छा है कि आप श्रीराम जी के रुप मे मुझे दर्शन दे । भगवान ने कहा कि मै दर्शन तो दे देता पर मजबूर तो तुमने ही किया है । विवश तुमने किया है । मै  भी दर्शन देने के लिये लालायित हूँ । तो महराज प्रकट क्यूँ नही हो रहे ? भगवान कहते है , ! तुम ही कह रहे थे कि   अगुन अनंत अखण्ड अनादी। तुम तो उस परमात्मा को याद कर रहे हो जो कि अनादि है ,अनन्त है , अखण्ड है ,अगुण है , फिर कहते हो दर्शन दे दो । जैसे कोई निराकार से कहे कि दिखो । निराकार से कहे कि दर्शन दो । तो दर्शन कैसे होगा ? भगवान ने कहा कि तुम हमे अरुप मान रहे हो और दर्शन चाहते हो । मनु महराज ने पूँछा तो क्या महराज आप ऐसे नही हो ? भगवान ने कहा , हैं । हमारा कोई रुप नही है । इसलिये तो तुम्हे दर्शन नही दे पाये । मनु महराज ने कहा तो प्रभू क्या जिन भक्तो की कथायें मैने सुनी है ,जिन्हे आपका दर्शन हुआ वह सब झूठी है ? आपने अपने भक्तो को दर्शन नही दिया कभी भी ? भगवान ने कहा , नही नही दर्शन दिया है कि । सब कथायें सत्य है । कहा जब आपका कोई रुप नही है ,यह सत्य है , वेदमत यह है कि आप अरुप है और भक्ति का मत है कि आप अपने भक्तो को दर्शन देते हो । तो महराज  इन सब का सत्य क्या है ?
भगवान कहते है प्रिय मनु यह सत्य है कि मेरा कोई रुप नही है । तो आप भक्तो को दर्शन कैसे देते हो ? भगवान कहते है रुप भक्त बनाते है और बन मै जाता हूँ । रुप की कामना भक्त की है ,प्रकट मै हो जाता हूँ । कोई मुझे कृष्ण रुप मे चाहता है तो कोई राम रुप मे तो कोई शिव रुप मे जिसकी जैसी इच्छा होती है वही रुप मै बना लेता हूँ । और तुमने कोई रुप बनाया ही नही । कहने लगे अरुप दर्शन दे दो । मनु महराज ने कहा ,महराज भूल हो गयी यदि सुधार ले तो । भगवान ने कहा ,अभी दर्शन दे दूँगा । तब मनु महराज ने कहा –
जो सरुप बस सिव मन मांही । जेहि कारन मुनि जतन कराही ।।
मित्रों यही भक्ति है जो ईश्वर को अपनी इच्छा के अनुसार आकार देती है । तुलसी बाबा का समन्वय देखिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्र जपने से तो श्रीकृष्ण प्रकट होने चाहिए । उसके बदले मे श्री रामभद्र प्रकट हुये । कितना समन्वय ! मनु महराज के दृढ निश्चिय ,निश्चल प्रेम ,अटूट श्रद्धा से प्रसन्न होकर भगवान श्री सीताराम प्रकट हो गये ।
बोलिये श्री सीताराम जी महराज की जय
 
नारद मोह की कथा
भाग 19
 
सज्जनों , — करोडों कामदेव को शर्माने जैसा दिव्य रुप धारण करके अजानबाहु श्रीरामभद्र धनुष बाण धारण करके मनु महराज के सम्मुख राम रुप मे प्रकट हुये । अकेले नही थे । साथ मे आदिशक्ति छबिनिधि जगमूला आदिशक्ति माँ जानकी जी भी थी । मनु महराज अपने सम्मुख प्रभु की दिब्य झांकी देखकर आत्मविभोर हो रहे है । देखते ही देखते मनु महराज प्रभु के चरणों मे गिर पडे । परमात्मा का दिब्य रुप देखकर मन भावमग्न बन गया । प्रभु ने अपनी दोनो बाहुओ से मनु महराज को उठा लिया —
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुरत उठाए करुनापुंजा ।।
भगवान कहते है , राजन ! मै तुम्हारी भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ । तुम्हारे मन मे जो कुछ कामना हो माँग लो मै पूरी करुँगा । ये सोचकर माँगना कि संसार के सबसे बडे दानी से माँग रहे हो ।
मित्रों भगवान के बचनो को सुनकर मनु महराज ने कहा प्रभू ! आपके दर्शसन मात्र से मेरी सम्पूर्ण मनोकामना पूर्ण हो गयी । भगवान मुस्करायें राजन ! तुम कुछ छुपा रहे हो ? मनु महराज ने कहा महराज ! मेरे मन मे एक कामना है लेकिन कहने मे संकोच हो रहा है क्यूँकि आपके लिये तो वह अत्यन्त सरल है परन्तु मेरे लिये वह माँगना ही अत्यन्त कठिन लग रहा है । जैसे किसी दरिद्र को कल्पवृक्ष के समक्ष खडा करके कहा जाय माँगो क्या माँगना है ? कल्पवृक्ष तो सब दे सकता है लेकिन दरिद्र उस कल्पवृक्ष की महत्ता को न जानते हुये माँगने मे संकोच करता है । वही स्थित प्रभू मेरी है । आप तो सर्वग्य हो ,अन्तरयामी हो –
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ।।
मित्रों भगवान चाहते है कि तुम अपने मुख से अपनी इच्छा प्रकट करो । यद्यपि भगवान सब के हृदयगत बात को जानते है । जब हम प्रभु के सम्मुख जाय तो यही भाव रखे कि प्रभु आप अन्तरयामी हो मेरे समस्त हृदयगत भाव को आप जानते हो मेरा मनोरथ सफल करिये ।
भगवान कहते है राजन ! सुकुच बिहाय मांगु नृप मोही । मोहि मुझसे माँग लो । दूसरा अर्थ है कि मुझे माँग लो । भगवान सोचते है मनु महराज ने अन्तर्यामी कहा है और मुझे मालुम है कि ये क्या चाहते है ? इसलिये प्रभु ने कहा ,  मांगु नृप मोही । मनु महराज ने कहा प्रभू आप मिल जाओगे ? भगवान कहते है ! नहि अदेय कछु । संकोच छोडकर माँगो । संकोच — क्या कोई इतनी आसानी से छोड देगा ? मनु महराज बडे संकोची है ।
दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ।
मनु महराज कहते है हे दानिओ मे शिरोमणि । मित्रों भगवान से बडा दानी कौन हो सकता है ? पूरे संसार मे सब अपने पुरुषार्थ से अर्जित करते है लेकिन कभी बिचार किया कि वह पुरुषार्थ हमे कौन देता है ? पूरे संसार को सब कुछ प्रदान करने वाले परमात्मा ही है ।ऐसा कोई नही हो सकता जो बिना प्रभु की इच्छा के सिर्फ अपने पुरुषार्थ से कुछ अर्जित कर सके । इसलिये आज मनुमहराज भगवान को दानिओ मे शिरोमणि कह रहे है । हे दान शिरोमणि ,हे कृपानिधि । भगवान कहते है कि अब यही सब कहते रहोगे कि कुछ माँगोगे भी ? संकोची व्यक्ति दूसरी तमाम बाते तो करेगा ,पर जो माँगना है कहना है वह कह नही पाता । आप दानिओं मे शिरोमणि हो यह आपका प्रभाव है , आप कृपानिधि हो यह आपका स्वभाव है । भगवान बोले  ,और तुम्हारे पास ? मनु महराज कहते है प्रभू ! मेरे पास तो केवल भाव है । नाथ कहउ सति भाउ अच्छा क्या चाहते हो ? तो मनु महराज के मुख से निकल गया चाहउँ तुम्हहि । भगवान बोले , मुझे ? तो संकोच आ गया । आगे जोडा   *समान सुत* आपको चाहता हूँ — नही , आप जैसा पुत्र चाहता हूँ । स्नेह ने कहा , आपको चाहता हूँ । संकोच ने कहा आप जैसा पुत्र चाहता हूँ । जासु सनेह सकोच बस राम प्रकट भे आय। भगवान ने कहा साफ साफ बताओ । आपकी बात कुछ कम समझ मे आ रही है । मनु महराज ने कहा प्रभू ! आप तो सब समझते है तुम सन कौन दुराव । भगवान ने कहा तुमने मेरे जैसा पुत्र कहा है । तुम्हे कठिनाई नही है पर मुझ जैसा पुत्र ढूँढने मे मुझे परेशानी है । भगवान. जैसा कोई हो सकता है क्या ? राजन ! मै ही स्वयं तुम्हारा पुत्र बनूँगा । पर वाणी से मेरे समान माँगा है तो मै तो पुत्र बनकर आउँगा ही और एक अपने जैसा भी साथ मे ले आउँगा । किसे ? भरत जी को –
भरत रामही की अनुहारी । सहसा लखि न सकहिं नर नारी ।।
भगवान ने देखा मनु महराज अकेले ही नही है साथ मे महारानी शतरुपा भी है । भगवान उनसे कहते है 
 
नारद मोह की कथा
भाग 20
 
सज्जनों —- माता शतरुपा को देखकर भगवान ने कहा !माता जी आप की इच्छा है ?
सतरुपहि बिलोकि कर जोरें । देबि मागु बरु जो रुचि तोरें ।।
माता शतरुपा ने कहा प्रभू ! जो कुछ वरदान मेरे पति ने माँगा है वह मुझे भी अति प्रिय है ।आप जब पुत्र बनकर आये तो माता बनने का सौभाग्य मुझे ही प्राप्त हो । एक बात और दूसरे जन्म मे आप बातो को भूल तो नही जाओगे ?क्योकि हमे आश्चर्य होता है कि चौदह कोटि ब्रम्ह्याण्ड का मालिक हमारा पुत्र बनेगा ? भगवान ने कहा , माँ मेरे वचन कभी निष्फल नही होते है , जो कहता हूँ उसका पालन करता हूँ । मनुष्य अपने वचनो से पलट सकता है पर परमात्मा नही ।  आप माँगो ,आपकी इच्छा पूरी होगी । मै आज से माँ कहने की तैयारी कर रहा हूँ । मनु महराज और आपकी  इच्छा अनुसार पुत्र बनकर प्रकट होउँगा । शतरुपा ने कहा प्रभु ! दूसरा वरदान दो कि , आप जब पुत्र बनकर आओगे तब
सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेह ।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा कर देहु ।।
माता शतरुपा ने वरदानो की झडी लगा दी प्रभु !आप पुत्र बनोगे तो मुझे आपके स्वरुप का ज्ञान रहे और अपने भक्तो और संतो को जो गति, जो रहन सहन , जो भक्ति , जो आनन्द मिलते है वही हमको भी मिलना चाहिए । भगवान ने एवमस्तु कहा । मनु महराज ने कहा महराज  !  रुक जाइये । रानी हमारे वरदान मे सम्मलित हो मुझे कोई समस्या नही है परन्तु मै इनके वरदान मे सम्मलित नही हो सकता । भगवान ने कहा क्यूँ ? मनु महराज कहते है ! प्रभू जब आप आइयेगा तो ज्ञान सिर्फ इन्ही को दीजियेगा ,हमे नही । तो आपको ? हमे तो जब आप पुत्र बनकर आये तो यह ध्यान ही न रहे कि आप भगवान. हो । सुत बिषयक तव पद रति होऊ । मै आपको पुत्र समझू और प्रेम आपके चरणों मे हो । भगवान बोले , हमसे ऐसा वरदान माँग रहे हो , संसार क्या कहेगा कि पिता पुत्र के चरणों मे प्रेम करता है । पुत्र पिता के चरणों मे प्रेम करता है । हम तो मर्यादा की स्थापना के लिये आ रहे है ,मर्यादित जीवन अच्छा होता है ,बरसाती नदी जैसा नही । मनु महराज ने कहा कुछ भी हो प्रभू चाहे कोई मुझे मूर्ख कहे –  मोहि बड़ मूढ कहै किन कोऊ । आपके चरणो मे मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिये पिता की होती है ।हमारा आप पर इतना स्नेह उत्पन्न हो  कि जल बिना मछली जैसे प्राण छोडती है उसी तरह आपके वियोग मे मेरी मृत्यु हो । धन्य है मनु महराज जिन्होने प्रभु प्रेम मे मृत्यु माँगी । भगवान ने कहा , आपका प्रारब्ध पूरा हो तब तक ऋषिओ के साथ रहो । प्राण छूटने के बाद स्वर्ग मे निवास होगा । यह अवधि पूरा होने के बाद आप अयोध्या के राजा के रुप मे जन्म लोगे तब मै आपके यहाँ पुत्र बनकर आउँगा । अत्यन्त आनन्द हुआ ।मनु -शतरुपा से भगवान ने बिदाई ली । शेष जीवन संतो के साथ व्यतीत किया । प्राण छूटने के बाद स्वर्ग मे निवास किया । भगवान शिव पार्वती जी से एवं याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी से कहते है –
यह इतिहास पुनीति अति उमहि कही वृषकेतु ।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ।।
सज्जनों भगवान के अवतार लेने का चौथा कारण मनु शतरुपा को वरदान देना रहा । आइये हम पाँचवे कारण पर ध्यान दे ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 21
 
सज्जनों — आइये हम सब मिलकर  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के अवतार के पाँचवे कारण पर चर्चा करे । सावधानी पूर्वक जीवन जीना कितना आवश्यक है इस कथा का मुख्य लक्ष्य है । असावधानी के समय हम अपने पथ से कब भटक जाय कुछ कह नही सकते ।
विस्व बिदित एक कैकय देसू । सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ।।
सत्यकेतु नाम के राजा कैकय देश मे हुये । उनके दो  पुत्र हुये । बडे का नाम प्रतापभानु  दूसरे का नाम अरिमर्दन । दोनो भाइयो मे अपार प्रेम था । गोस्वामी बाबा का मानस हमे पल पल पर लोक व्यवहार कैसे हो इसकी शिक्षा प्रदान करता रहता है । एक भाई का दूसरे भाई से प्रेम कैसा हो यह हमे मानस से बहुत सुन्दर तरीके से बताया एवं समझाया गया है ।
भाइहि भाइहि परम समीती । सकल दोष छल बरजित प्रीती ।।
एक भाई का दूसरे भाई से प्रेम तभी सम्भव है जब  छल कपट ,स्वार्थ से दोनो रहित हो  । अगर दोनो के अन्दर छल से रहित सच्ची प्रीति है तो राम लक्ष्मण भरत सत्रुघन एवं प्रतापभानु ,अरिमर्दन की जोडी बनती है और यदि आपसी प्रेम नही हो तो बालि सुग्रीव एवं रावण विभीषण की जोडी बनती है । दोनो का परिणाम आप सब बहुत अच्छी तरीके से जानते है । मानस पढने एवं सुनने के बाद भी भाई भाई मे प्रेम न हो तो समझना मैने कथा पढी ही नही ,सुनी ही नही ।
आयु होने पर राजा सत्यकेतु ने अपने बडे पुत्र प्रतापभानु को राज्य देकर वन मे चले गये । प्रतापभानु बडे धर्मात्मा राजा थे । श्रेष्ठ प्रजापालक राजा प्रतापभानु अपने बाहुबल से समस्त राजाओ को जीत लिया । उसका मन्त्री जिसका नाम धर्मरुचि था बहुत ज्ञानी बुद्धिमान था ।
मित्रों कोई राजा कितना भी अच्छा हो अगर उसके मन्त्री नकारा है तो वह राजा सफल नही हो पाता । राजा की आँख कान सब मन्त्री ही होते है ।
नृप हितकारक सचिव सयाना । नाम धरमरुचि सुक्र समाना ।।
राजा प्रतापभानु ने समस्त भूमण्डल के एक छत्र राजा बन गये तो उसमे बहुत बडा योगदान उनके छोटे भाई अरिमर्दन एवं मन्त्री धर्मरुचि का था । जब राजा प्रजापालक हो तो पृथ्वी भी कामधेनु के समान अन्नादि उत्पन्न करती है । भागवत जी मे राजा पृथु की कथा आप लोगो ने सुनी होगी । किस प्रकार राजा बेन के अत्याचार से पृथ्वी ने अन्न उपजाना ही बन्द कर दिया था और जब राजा पृथु बने तब पृथ्वी ने धन उपजाना प्रारम्भ किया । मित्रों कहने का तात्पर्य यह है कि राजा प्रजापालक नीतिवान होगा तो पृथ्वी भी अपने द्वारा प्रजापालन मे सहायक बन जाती है ।
राजा प्रतापभानु मन्त्री धर्मरुचि के साथ मिलकर अनेक यज्ञ एवं परोपकार के लिये तालाब ,देवमन्दिर ,जलासय आदि का निर्माण कराया ।
नाना वापी कूप तडागा । सुमन वाटिका सुन्दर बागा ।।
एक दिन की बात है राजा प्रतापभानु शिकार खेलने गये । बन मे उन्हे एक जंगली  सूकर दिखायी पडा । उसके आकार आदि को देखकर राजा उसका शिकार करने का विचार किया । राजा हठ के कारण उसके पीछे पड गये । सब का साथ छूट गया । *अति अकेल बन बिपुल कलेसू* । अकेले । जो साथ मे थे वे सब लौट गये । क्यों ?किस कारण ?अभिमान के कारण । और ‘अति अकेल’ कौन ? अभिमानी अत्यन्त अकेला होता है । और भक्त कभी अकेला नही होता ।
मुख मे हो राम नाम राम सेवा हाथ मे ।
तू अकेला नही प्यारे राम तेरे साथ मे ।।
पर यह तो । सूकर छिप गया गुफा मे । अब लौटना मुश्किल । वन मे भटक गये । प्यास के मारे गला सूखने लगा । अब शिकार नही राजा जलासय ढूँढ रहे है । तभी उन्हे सामने एक आश्रम दिखायी पडा ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 22
 
सज्जनों —  राजा प्रतापभानु प्यास से व्यथित जंगल मे जलाशय तलाश रहे थे तभी उन्हे एक आश्रम दिखायी दिया ।
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा । तहँ बस नृपति कपट मुनिवेषा ।।
मित्रों वह आश्रम राजा प्रतापभानु के एक पुराने शत्रु का था जो कि राजा प्रतापभानु से युद्ध मे हार गया था ।और वह प्राण बचाकर जंगल मे भाग आया था । वह जानता था कि आज प्रतापभानु का समय है मै चाह कर भी उनका कुछ नुकसान नही कर सकता । मन मे वैर रखकर वह बाबा के वेश बनाकर जंगल मे ही बस गया था ।
रिस उर मारि रंक जिमि राजा । बिपिन बसइ तापस कें साजा ।।
मित्रों बहुत लोग ऐसे होते है बाहर से तो बहुत बडी बडी बात करते है बडा प्रेम दिखाते है लेकिन अन्दर से शत्रुता रखते है कब मौका मिले और कब प्रतिघात करे । इसलिये जिससे शत्रुता हो उससे विशेष सतर्कता की आवश्यकता होती है ।
राजा प्रतापभानु उसी कपटी मुनि की कुटिया मे पहुँचे । उस कपटी मुनि ने तो राजा को तुरंत पहचान लिया परन्तु राजा उसे नही पहचान पाये । राजा ने समझा कोई तपस्वी है जोकि वन मे तप कर रहें है । प्रणाम किया । राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखलाया । प्रसन्न होकर राजा ने घोडे सहित स्नान किया जल पिया । राजा प्रसन्न होकर पुनः उस आश्रम मे आ गये ।
मित्रों प्रतापभानु कपटी मुनि के फेर मे कब पडे ? जिसका प्रताप सूर्य की तरह हो ,वह कब पहुँचा कपटी मुनि के पास ? – आसन दीन्ह अस्त रवि जानी । सूर्यास्त के समय । अब कपटी मुनि ने राजा से पूँछा – तुम्हारा परिचय ? अकेले इस भयानक जंगल मे कैसे ?चक्रवर्ती राजा दिखाई पडते हो ?
चक्रवर्ति के लच्छन तोरें । देखत दया लागि अति मोरे ।।
राजा प्रतापभानु ने भी अपना परिचय सीधे नही दिया । राजा कहते है मै प्रताभानु राजा का मन्त्री हूँ । अच्छा ! महराज आप ? कपटी मुनि कहता है क्या करोगे मेरा नाम जानकर ? राजा ने कहा महराज मुझे आपको देखकर विशेष श्रद्धा हो रही है परिचय मिल जाता तो अच्छा रहता ?  कपट बोरि बानी मृदुल । कपटी की एक पहचान यह भी होती है कि वह ऐसी मृदुल बात करेंगे कि पूछो मत । बडी प्रेम युक्त वाणी पर मन मे कपट रखकर वह कहता है अपनी सुबिधा के लिये आप मेरा नाम भिखारी रख  सकते हैं ।क्योंकि हम निर्धन और घर परिवार से हीन है ।
मित्रों राजा उनकी चिकनी चुपडी बातो से इतने प्रभावित है कि वे कहते है महराज ! आप जैसे संत सर्वथा अभिमान से दूर रहते है ,लोक प्रतिष्ठा की कामना नही करते । क्यूँकि छिप कर रहने से ही कल्याण है । प्रकट होने पर लोग इतना मान देते है कि उस मान से पतन की सम्भावना रहती है ।
मित्रों यह भले ही राजा और कपटी मुनि के बीच की बात हो पर है यह बहुत ही उपयोगी । संत अपने स्वरुप को छिपाये ही रहते है जो सिर्फ मान पाने के लिये संत बने है । उन्हे हम संत नही कह सकते । मान से पतन की सम्भावना रहती है ।
गोस्वामी बाबा कहते है –
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ।।
सुन्दर वेष देखकर मूर्ख ही नही चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते है । जैसे मोर सबके मन को लुभाता है परन्तु आहार सर्प का करता है । आज भी कितने जटा जूट बनाकर कपडे रंगकर लोगो को अपने झांसे मे ले लेते हैं । मनुष्य जाता तो है शान्ति ढूँढने पर वास्तविकता प्रकट होती है तो अशान्त हो जाता है ।
सज्जनों उस कपटी मुनि ने सब प्रकार से राजा को अपने बस मे कर लिया । वह कहता है मै संसार से छिपकर रहता हूँ । भगवान को छोडकर किसी से कोई मतलब नही रखता । और तुम्हारे प्रेम के कारण मै कहता हूँ मेरी सही नाम एकतनु है । महराज इसका अर्थ ? जब सृष्टि उत्पन्न हुई थी तब ब्रम्हा जी ने मुझे प्रकट किया था । तबसे शरीर बदला ही नही । बडी कृपा ,मेरा परम सौभाग्य आपका दर्शन हुआ । राजन सब तप का प्रभाव है तप से ही तो यह सृष्टि चलती है । ब्रम्ह्या ,विष्णु ,महेश सब तप के बल से ही तो संसार चलीते है । उसी तरह मै भी तप के प्रभाव से आज तक एक ही शरीर मे रहता हूँ । इतना सुनते ही राजा पूरी तरह से उस कपट मुनि के अधीन हो गये । बारम्बार चरण छुये ,बारम्बर नमन करे । और तो और जो अभी तक अपना नाम छुपाये हुये थे वह भी बता दिया –
सुनि महीप तापस बस भयऊ ।
आपन नाम कहन तब लयऊ ।।
कपटी मुनि हंसते हुये कहते है महराज मुझे सब मालुम है 
 
नारद मोह की कथा
भाग 23
 
सज्जनों — कपटी मुनि ने कहा मुझे मालुम है कि तुमने मुझे अपना परिचय गलत दिया । मै तुम्हे देखते ही पहचान गया कि तुम चक्रवर्ति सम्राट प्रतापभानु हो ,तुम्हारे पिता का नाम सत्यकेतु था । तुम्हारे भाई का नाम अरिमर्दन है ।
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा । सत्यकेतु तव पिता नरेसा ।।
मै तुम्हारे बारे मे सब कुछ जानता हूँ । मै तुम्हारी सज्जनता से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारे निश्चल प्रेम से मै अवीभूत हूँ । मागु जो भूप भाव मन माहीं । माँग लो जो तुम्हारे मन मे हो ? राजा ने देखा कि महात्मा तो मुझपर अत्यन्त प्रसन्न है वे कहते है , महराज ! आपके दर्शन मात्र से चारो पदार्थ (धर्म अर्थ काम मोक्ष) मेरी मुठ्ठी मे आ गया है फिर भी आप देना चाहते है और मै न माँगू तो अविवेक होगा आपकी प्रसन्नता के लिये मै चाहता हूँ कि ‘बुढापा न आये’ — कपटी मुनि ने कहा ‘एवमस्तु ‘ ऐसा ही होगा । केवल कहने मे क्या जाता है ? हो न हो । तुम्हारा बुढापा नही आयेगा । ऐसा कभी हुआ है ? प्रतापभानु ने कहा महराज सच मे बुढाया नही आयेगा ? कपटी मुनि ने कहा ! बिल्कुल नही आयेगा । लेकिन एक बात है मृत्यु तो आयेगी । बुढापा न आए ,पर मृत्यु ? वह तो आयेगी । राजा ने कहा यह वरदान है या श्राप । बुढापा न आए बीच मे ही साफ । जरा मरन न बुढापा आए न मृत्यु । हाँ यह ठीक है । तो रोग तो होंगे ही ? हाँ ! दुख रहित तनु । तीन हो गये । अच्छा यह भी होगा । युद्ध मे कोई जीते नहीं । समर जितै नहि कोय । कपटी ने कहा एवमस्तु । एक छत्र हमारा ही राज्य रहे । यह भी होगा । शत्रु हमारा कोई रहे नही और सौ कल्पो तक राज्य हो । कपटी मुनि ने कहा , होगा ! होगा ! लेकिन एक बात है । क्या ? यह सब तो हो जाएगा ,लेकिन जब –
कालिउ तुअ पद नाइहि सीसा । एक बिप्रकुल छाडि महीसा ।।
हे राजन मै तुम्हे सब कुछ दे देता हूँ लेकिन जब नष्ट होओगे , तो उसका कारण केवल एक हो सकता है और सब को तो मै बस मे कर सकता हूँ , पर तपबल बिप्र सदा बरिआई ब्राम्ह्यणो को बस मे करो । यदि तुमने ऐसा कर लिया तो संसार की तीन अंतिम शक्ति  तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा भी तुम्हारे बस मे हो जाएगें ।
मित्रों जो ब्राम्हणो का सम्मान करता है वह सब प्रकार से डर मुक्त रहता है । ब्राम्ह्यण अपने तप के द्वारा ,पूजन के द्वारा धर्म का प्रचार प्रसार करके संसार को उर्जा प्रदान करते है । भगवान  का स्पष्ट कथन है –
यह जग मे अद्भुत प्रसंग है । मम द्विज एक विशेष अंग है ।।
ब्राम्ह्यण कुल मे जन्म पाकर भी जिसने भोगादि कार्यो मे अपने जीवन को नष्ट कर दिया मानो उसने हाथ मे आया हुआ अमृत कलश प्रमाद से नीचे गिरा दिया । लोग कहते है कि आज ब्राम्ह्यणो का सम्मान नही हो रहा है उसका कारण है कि हम आप अपने लक्ष्य से भटक गये है । समाज को राह दिखाने वाला ब्राम्ह्यण यदि आज दर दर की ठोकर खा रहा है तो उसका उत्तरदायी वह स्वयं है । आप के अन्दर वह शक्ति थी कि आपने जिसके उपर अपना वरद हस्त रख दिया उसे भगवान भी नही मार पाये । जरासन्ध ,राजा बलि इसके प्रमाण है ।
कपटी मुनि कहता है महराज ! तुम ब्राम्ह्यणो को बस मे करो । कैसे होंगे ? कपटी मुनि कहता है पहली बात तो हमारे और अपने मिलने का समाचार किसी तीसरे से भूल कर भी न करना । अगर यह बात तीसरे के कान मे पडी तो निश्चित तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा । तुम्हे दो बात ध्यान देनी है पहली हमारे मिलन को गुप्त रखना दूसरा ब्राम्ह्यणो को बस मे करना । 
आन उपायँ निधन तव नाहीं ।  जौं हरि हर कोपहिं मन माही ।।
राजा ने कहा महराज ! मै आपके कथनानुसार चलूँगा । कुछ भी हो मुझे इसकी चिन्ता नही है पर मुझे एक ही डर सता रहा है कि ब्राम्ह्यणो का श्राप बहुत भयानक होता है । मुझे कृपा करके ब्राम्ह्यणो  को वश मे करने का उपाय बताइये ।
मित्रों कपटी मुनि कहता है ! राजन उपाय तो बहुत है पर बहुत कठिन है और उसमे सफलता मिलेगी भी या नही संदेह है ।मेरे पास एक बहुत सरल उपाय है लेकिन एक बडी समस्या है जब से जन्म लिया मै कभी किसी घर गाँव मे नही गया । और यह उपाय ऐसा है कि बिना घर गये तुम्हारा काम बनेगा नही ? बडी समस्या है । बना आइ असमंजस आजू। राजा मे कपटी मुनि के चरण पकड लिये महराज ! मै क्या कहूँ ? जैसे मेरा कल्याण हो वही करिये । कपटी मुनि ने कहा राजन भक्त के लिये भगवान क्या कुछ नही करते मै भी तुम्हारे लिये अपना नियम तोड दूँगा । हे राजन ! मै अपने हाँथ से तुम्हारे यहाँ रसोईं बनाउँगा और तुम उसे परोसना तीसरा कोई इस बात को जान न पाये । वह अन्न जो जो खायेगा वे सब तुम्हारे आज्ञाकारी बन जाएगें ।यही नही यह कोरोना की तरह फैलता जाएगा । भोजन करने वाले के यहाँ जो भोजन करेगा ,उसके आगे भी —
पुनि तिन्ह के गृह जेवईं जोऊ । तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ।।
राजन इसी तरह एक वर्ष तक नित्य प्रति एक लाख ब्राम्ह्यणो को परिवार सहित निमन्त्रित करके उन्हे भोजन कराना है । ऐसा करते ही तुम संसार के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाओगे ।
 
नारद मोह की कथा
भाग 24
 
सज्जनों — कपटी मुनि ने राजा से कहा सभी ब्राम्ह्यण यज्ञ हवन पूजन के द्वारा देव आराधना करेगे और इस प्रकार सभी देवता भी तुम्हारे अधीन हो जायेंगे । एक बात ध्यान देना मै इस रुप मे नही आउँगा । तो फिर महराज ?  सुनो –
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया । हरि आनब मैं करि निज माया ।।
मै तुम्हारे उपरोहित का हरण करके उन्हे यहाँ ले आउँगा और मै उन्ही के रुप मे तुम्हारे यहाँ एक वर्ष तक रहूँगा । चिन्ता मत करना तुम्हारे पुरोहित को कोई समस्या नही होगी और अपने तप बल से उन्हे भी शक्तिशाली बना दूँगा । ठीक है महराज । जैसा आप उचित समझे ।
मित्रों वह कपटी तपस्वी जानता है कि मेरी राह मे सबसे बडी बाधा राजा के पुरोहित की ही है । पुरोहित का जीवन मे बहुत महत्व होता है । जो आपका पूरा हित करे वही पुरोहित है । पुरोहित कभी भी आपका अहित नही होने देगा । अगर हम आप अपने पुरोहित का सम्मान न करके दूसरे विद्वान को बुलाकर यज्ञादि सम्पन्न कराते है तो लाभ नही मिलेगा । हाँ यदि पुरोहित उस योग्य न हो तो भी उन्हे उचित सम्मान देकर उनके परामर्श से ही दूसरे विद्वान के द्वारा पूजन सम्पन्न करायें । जब बशिष्ठ जी ने राजा दशरथ से कहा मै पुत्रेष्टि यज्ञ नही करा सकता आप श्रृंगी ऋषि को बुलाओ तो राजा दशरथ ने यही कहा महराज आप ही यह जिम्मेदारी उठायें । मै तो आपका शिष्य हूँ आपके चरण शरण मे पडा हूँ । तब बशिष्ठ जी ने ही श्रृंगी ऋषि को बुलवाया मानस मे लिखा है –
सृंगी रिषिहि बशिष्ठ बोलावा । पुत्र काम सुभ जग्य करावा ।।
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यदि आप पुरोहित का सम्मान न करके दूसरे विद्वान से यज्ञ अनुष्ठान करावोगे तो पूर्ण लाभ नही मिलेगा ।
कपटी मुनि ने कहा राजन सो जाओ सुबह तुम अपने महल मे होगे मेरी मुलाकात तीन दिन बाद होगी । प्रतापभानु सो गये । सुबह उठे तो देखा कि महल मे है । उन्हे विश्वास हो गया कि मेरे गुरु सामर्थ्यवान है । मित्रो उस कपटी मुनि ने कालकेतु राक्षस का सहारा लिया । कालकेतु ने ही सूकर का रुप बनाकर राजा को वन मे रास्ता भुलवाया था ।
मित्रों गोस्वामी बाबा कितना सुन्दर संकेत दे रहे है , सत्यकेतु का बेटा कालकेतु के चक्कर मे पड गया । बडे बडे सत्यकेतु कालकेतु के चक्कर मे पड ही जाते है । कालकेतु की भी प्रतापभानु से पुरानी शत्रुता थी । राजा ने कालकेतु के सौ पुत्र और दस भाइयो को अत्याचार करने पर मार डाला था । उसको भी बदला लेना था । दोनो मिल गये । कालकेतु ने उस कपटी मुनि से कहा अब हम दोनो मिलकर राजा का सर्वनाश करेगे तुम चिन्ता मत करो ।
मित्रों सबसे पहले कालकेतु ने
राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि ।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ।।
राजा प्रतापभानु तीन दिन पूरा होने की राह देख रहे थे । तीन दिन पूरा हो गया । उपरोहित बनकर कालकेतु आया । राजा ने जंगल मे घटित पूरी बात किसी को नही बताई । उपरोहित बनकर कालकेतु आया और राजा से मिलकर गुप्त सलाह के अनुसार ब्राम्ह्यणो को निमन्त्रित करा दिया । रसोइयाँ बनकर कालकेतु ने अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये । गोस्वामी बाबा कहते है मायामय तेहि कीन्ह रसोई है ही नही । वास्तविकता मे तो कुछ नही है पर दिखता है कि मृग का मांस है और ब्राम्ह्यणो का मांस उसमे मिला दिया है । जो है ही नही वैसी दिख रही है । सब ब्राम्ह्यण भोजन के लिये बैठ गये 
 
नारद मोह की कथा
विश्राम भाग
 
सज्जनों — सभी ब्राम्ह्यण भोजन के लिये बैठ गये । राजा प्रतापभानु सभी ब्राम्ह्यणो को ससम्मान बैठाया और स्वयं परोसने लगे । जैसा कि नियम है पहले पत्तल इत्यादि सभी के सामने रखा राजा ने –
परुसन जबहिं लाग महिपाला । भै अकासवानी तेहि काला ।।
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू । है बडि़ हानि अन्न जनि खाहू ।।
राजा ने जैसे परोसना प्रारम्भ किया उसी कालकेतु ने आकाशवाडी कर दिया कि हे ब्राम्ह्यणो यहाँ भोजन मत करो यह अन्न तुम लोगो के खाने लायक नही है । रसोईं अपवित्र है । भयउ रसोंईं भूसुर माँसू। ब्राम्ह्यणो का मांस इस भोजन मे है । गोस्वामी बाबा कहते हैं कि कुछ था ही नही लेकिन सब द्विज उठे मानि विस्वासू । शाप दे दिया ईश्वर राखा धरम हमारा । जैहसि तैं समेत परिवारा ।।
सभी ब्राम्ह्यण क्रोधित होकर राजा प्रतापभानु को घोर श्राप दे दिया । मूर्ख राजा तुम हम ब्राम्ह्यणो का धर्म नष्ट कर रहा  था । जा पूरे परिवार के साथ राक्षस हो जाओ । होहि निसाचर जाहु तुम मूढ़ सहित परिवार ।
अब भगवान को बडी दया आयी । भगवान बोले , भै बहोरि बर गिरा अकासा भगवान ने कहा ब्राम्ह्यणो !इसने तो विचार नही किया ,पर तुमने भी विचार नही किया ।
बिप्रहु साप बिचारि न दीन्हा । नहि अपराध भूप कछु कीन्हा ।।
प्रतापभानु घबरा कर भीतर गया । न भोजन , न रसोई ।कुछ था ही नही । सब प्रसंग  महि सुरन्ह सुनायउ । पूरी बात वन से लेकर घर तक की राजा ने ब्राम्ह्यणो से बतायी । ब्राम्ह्यणो को पश्चाताप हुआ लेकिन कर क्या सकते है । ब्राम्ह्यणो ने कहा , राजन ! भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर ।  अब ब्राम्ह्यणो का श्राप तो मिट नही सकता । लेकिन चलो हम संसोधन कर देते है तुम बडे बलवान बनोगे ,वैभववान बनोगे ,भुजाओ के बल के कारण तुम्हारे जैसा कोई नही होगा ।  राजा को श्राप की बात सुनकर सभी बिरोधी उस कपटी मुनि और कालकेतु के साथ मिलकर युद्ध प्रारम्भ कर दिया । राजा प्रतापभानु पूरे परिवार के साथ उस युद्ध मे मारे गये । वही प्रतापभानु रावण बना ।उसका भाई अरिमर्दन कुम्भकर्ण बना और मन्त्री धर्मरुचि बिभीषण बना ।
मित्रों आज इस कथा को यहीं पर विराम दे रहे है । भगवान राम के अवतार लेने के कारणो का यथा सम्भव समावेष इस नारद मोह कथा मे सम्मलित किया है । त्रुटिओ के लिये छमा प्रार्थी । प्रभू की कृपा से प्रभु को समर्पित कथा के रसपान के लिये आप सभी को बारम्बार नमन वन्दन । जल्द ही एक नयी कथा के साथ पुनः उपस्थित होंगे । तब तक के लिये जय जय सीताराम 
 
 
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जय श्री कृष्णा
 
 
 

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