Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha देव उठनी एकादशी व्रत कथा

Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha

देव उठनी एकादशी व्रत कथा

व्रत और त्योहारों की कथाएँ


देव उठनी एकादशी व्रत की कथा

कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देव उठनी एकादशी कहा जाता है। इसे देव उत्थान एकादशी, देव उठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी आदि नामों से भी जाना जाता है। 

प्राचीन समय मे एक राजा था । उसके राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था।

एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला- हे महाराज! मुझे नौकरी की बहूत जरूरत है आप कृपा करके मुझे कोई एक नौकरी दीजिए। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, हम आपको कोई एक नौकरी दे देंगे रख। परन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, लेकिन एकादशी के दिन आपको खाने में कुछ नहीं मिलेगा, उस दिन आपको उपवास रखना पड़ेगा।

उस व्यक्ति ने उस समय तो हाँ कर ली, लेकिन एकादशी के दिन जब उसे फलाहार दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा की हे महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊँगा। मुझे खाने कुछ अन्न दे दीजिए।

Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha

राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को राजी नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दे दिए। वह रोज की तरह नदी पर पहुँचा और स्नान आदि करके भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन कर तैयार हो गया तो वह भगवान को बुलाने लगा- आओ भगवान! भोजन तैयार है।  आकर मेरे साथ भोजन ग्रहण करो। भगवान प्रकट हुए और भोजन ग्रहण करके वापस चले गए।

पंद्रह दिन बाद जब अगली एकादशी आयी तो वह राजा के पास जाकर कहने लगा कि हे महाराज,आप मुझे इस बार दुगुना भोजन का सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि मेंरे साथ भगवान भी भोजन करने आते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता हैं। 

भोजन तैयार करने के बाद जब भगवान को बुलाता हू तो भगवान पीताम्बर वस्त्र धारण कर चतुर्भुज रूप में आते है और प्रेम से भोजन करके अंतर्धान हो जाते है। देव उठनी एकादशी

यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला- मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ भोजन करते होंगें। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।

राजा की बात सुनकर वह बोला- महाराज! यदि आपको विश्वास नहीं हो तो आप मेरे साथ चलकर देख सकते है। इस बार एकादशी के दिन राजा उस व्यक्ति के साथ चले और एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गये। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान नहीं आए। अंत में जब उसने कहा- हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूँगा।

लेकिन भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ निश्चय जानकर शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। 

यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला और वह भी दृढ़ मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ। 

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