दशरथ-कैकेयी संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्री रामजी को महल में भेजना
Dashrath-Kaikeyi Samwad
Dashrath-Kaikeyi Samwad
छन्द :
केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
भावार्थ:-‘हे रानी! किसलिए रूठी हो?’ यह कहकर राजा उसे हाथ से स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को (झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों (वरदानों की) वासनाएँ उस नागिन की दो जीभें हैं और दोनों वरदान दाँत हैं, वह काटने के लिए मर्मस्थान देख रही है। तुलसीदासजी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे (इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भाँति देखने को) कामदेव की क्रीड़ा ही समझ रहे हैं।
सोरठा :
बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥
भावार्थ:-राजा बार-बार कह रहे हैं- हे सुमुखी! हे सुलोचनी! हे कोकिलबयनी! हे गजगामिनी! मुझे अपने क्रोध का कारण तो सुना॥25॥
चौपाई :
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा।
केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौं नरेसू।
कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥1॥
भावार्थ:-हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? किसके दो सिर हैं? यमराज किसको लेना (अपने लोक को ले जाना) चाहते हैं? कह, किस कंगाल को राजा कर दूँ या किस राजा को देश से निकाल दूँ?॥1॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी।
काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू।
मनु तव आनन चंद चकोरू॥2॥
भावार्थ:-तेरा शत्रु अमर (देवता) भी हो, तो मैं उसे भी मार सकता हूँ। बेचारे कीड़े-मकोड़े सरीखे नर-नारी तो चीज ही क्या हैं। हे सुंदरी! तू तो मेरा स्वभाव जानती ही है कि मेरा मन सदा तेरे मुख रूपी चन्द्रमा का चकोर है॥2॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें।
परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौं कपटु करि तोही।
भामिनि राम सपथ सत मोही॥3॥
भावार्थ:-हे प्रिये! मेरी प्रजा, कुटम्बी, सर्वस्व (सम्पत्ति), पुत्र, यहाँ तक कि मेरे प्राण भी, ये सब तेरे वश में (अधीन) हैं। यदि मैं तुझसे कुछ कपट करके कहता होऊँ तो हे भामिनी! मुझे सौ बार राम की सौगंध है॥3॥
बिहसि मागु मनभावति बाता।
भूषन सजहि मनोहर गाता॥।
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू।
बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥4॥
भावार्थ:-तू हँसकर (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी मनचाही बात माँग ले और अपने मनोहर अंगों को आभूषणों से सजा। मौका-बेमौका तो मन में विचार कर देख। हे प्रिये! जल्दी इस बुरे वेष को त्याग दे॥4॥
दोहा :
यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकिमृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥
भावार्थ:-यह सुनकर और मन में रामजी की बड़ी सौंगंध को विचारकर मंदबुद्धि कैकेयी हँसती हुई उठी और गहने पहनने लगी, मानो कोई भीलनी मृग को देखकर फंदा तैयार कर रही हो!॥26॥
चौपाई :
पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी।
प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा।
घर घर नगर अनंद बधावा॥1॥
भावार्थ:-अपने जी में कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुंदर वाणी से फिर बोले- हे भामिनि! तेरा मनचीता हो गया। नगर में घर-घर आनंद के बधावे बज रहे हैं॥1॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू।
सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू।
जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥2॥
भावार्थ:-मैं कल ही राम को युवराज पद दे रहा हूँ, इसलिए हे सुनयनी! तू मंगल साज सज। यह सुनते ही उसका कठोर हृदय दलक उठा (फटने लगा)। मानो पका हुआ बालतोड़ (फोड़ा) छू गया हो॥2॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहिं गोई।
चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई।
कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥3॥
भावार्थ:-ऐसी भारी पीड़ा को भी उसने हँसकर छिपा लिया, जैसे चोर की स्त्री प्रकट होकर नहीं रोती (जिसमें उसका भेद न खुल जाए)। राजा उसकी कपट-चतुराई को नहीं लख रहे हैं, क्योंकि वह करोड़ों कुटिलों की शिरोमणि गुरु मंथरा की पढ़ाई हुई है॥3॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू।
नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाई बहोरी।
बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥4॥
भावार्थ:-यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं, परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटयुक्त प्रेम बढ़ाकर (ऊपर से प्रेम दिखाकर) नेत्र और मुँह मोड़कर हँसती हुई बोली-॥4॥
दोहा :
मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥
भावार्थ:-हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में संदेह है॥27॥
चौपाई :
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई।
तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाती राखि न मागिहु काऊ।
बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥
भावार्थ:-राजा ने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती (धरोहर) रखकर फिर कभी माँगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी वह प्रसंग याद नहीं रहा॥1॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू।
दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥2॥
भावार्थ:-मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता॥2॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा।
गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए।
बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3॥
भावार्थ:-असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुँघचियाँ मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। ‘सत्य’ ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥3॥
तेहि पर राम सपथ करि आई।
सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बाद दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली।
कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥4॥
भावार्थ:-उस पर मेरे द्वारा श्री रामजी की शपथ करने में आ गई (मुँह से निकल पड़ी)। श्री रघुनाथजी मेरे सुकृत (पुण्य) और स्नेह की सीमा हैं। इस प्रकार बात पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने कुमत (बुरे विचार) रूपी दुष्ट पक्षी (बाज) (को छोड़ने के लिए उस) की कुलही (आँखों पर की टोपी) खोल दी॥4॥
दोहा :
भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥
भावार्थ:-राजा का मनोरथ सुंदर वन है, सुख सुंदर पक्षियों का समुदाय है। उस पर भीलनी की तरह कैकेयी अपना वचन रूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥28॥
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
चौपाई :
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का।
देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी।
पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥
भावार्थ:-(वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए-॥1॥
तापस बेष बिसेषि उदासी।
चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू।
ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥
भावार्थ:-तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है॥2॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा।
जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू।
दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥3॥
भावार्थ:-राजा सहम गए, उनसे कुछ कहते न बना मानो बाज वन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रंग बिलकुल उड़ गया, मानो ताड़ के पेड़ को बिजली ने मारा हो (जैसे ताड़ के पेड़ पर बिजली गिरने से वह झुलसकर बदरंगा हो जाता है, वही हाल राजा का हुआ)॥3॥
माथें हाथ मूदि दोउ लोचन
तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला।
फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥4॥
भावार्थ:-माथे पर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात् सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते हैं- हाय!) मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयी ने हथिनी की तरह उसे जड़ समेत उखाड़कर नष्ट कर डाला॥4॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं।
दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं॥5॥
भावार्थ:-कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ़) नींव डाल दी॥5॥
दोहा :
कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥
भावार्थ:-किस अवसर पर क्या हो गया! स्त्री का विश्वास करके मैं वैसे ही मारा गया, जैसे योग की सिद्धि रूपी फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है॥29॥
चौपाई :
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा।
देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होंही।
आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार राजा मन ही मन झींख रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्रोधित हुई। (और बोली-) क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं? क्या मुझे आप दाम देकर खरीद लाए हैं? (क्या मैं आपकी विवाहिता पत्नी नहीं हूँ?)॥1॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें।
काहे न बोलहु बचनु सँभारें॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं।
सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥2॥
भावार्थ:-जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण सा लगा तो आप सोच-समझकर बात क्यों नहीं कहते? उत्तर दीजिए- हाँ कीजिए, नहीं तो नाहीं कर दीजिए। आप रघुवंश में सत्य प्रतिज्ञा वाले (प्रसिद्ध) हैं!॥2॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू।
तजहु सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना।
जानेहु लेइहि मागि चबेना॥3॥
भावार्थ:-आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिए। सत्य को छोड़ दीजिए और जगत में अपयश लीजिए। सत्य की बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था कि यह चबेना ही माँग लेगी!॥3॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा।
तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई।
मानहुँ लोन जरे पर देई॥4॥
भावार्थ:-राजा शिबि, दधीचि और बलि ने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचन की प्रतिज्ञा को निबाहा। कैकेयी बहुत ही कड़ुवे वचन कह रही है, मानो जले पर नमक छिड़क रही हो॥4॥
दोहा :
धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥
भावार्थ:-धर्म की धुरी को धारण करने वाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर नेत्र खोले और सिर धुनकर तथा लंबी साँस लेकर इस प्रकार कहा कि इसने मुझे बड़े कुठौर मारा (ऐसी कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर दी, जिससे बच निकलना कठिन हो गया)॥30॥
चौपाई :
आगें दीखि जरत सिर भारी।
मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई।
धरी कूबरीं सान बनाई॥1॥
भावार्थ:-प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेयी सामने इस प्रकार दिखाई पड़ी, मानो क्रोध रूपी तलवार नंगी (म्यान से बाहर) खड़ी हो। कुबुद्धि उस तलवार की मूठ है, निष्ठुरता धार है और वह कुबरी (मंथरा) रूपी सान पर धरकर तेज की हुई है॥1॥
लखी महीप कराल कठोरा
सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
बोले राउ कठिन करि छाती।
बानी सबिनय तासु सोहाती॥2॥
भावार्थ:-राजा ने देखा कि यह (तलवार) बड़ी ही भयानक और कठोर है (और सोचा-) क्या सत्य ही यह मेरा जीवन लेगी? राजा अपनी छाती कड़ी करके, बहुत ही नम्रता के साथ उसे (कैकेयी को) प्रिय लगने वाली वाणी बोले-॥2॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती।
भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी।
सत्य कहउँ करि संकरु साखी॥3॥
भावार्थ:-हे प्रिये! हे भीरु! विश्वास और प्रेम को नष्ट करके ऐसे बुरी तरह के वचन कैसे कह रही हो। मेरे तो भरत और रामचन्द्र दो आँखें (अर्थात एक से) हैं, यह मैं शंकरजी की साक्षी देकर सत्य कहता हूँ॥3॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता
ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई।
देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥4॥
भावार्थ:-मैं अवश्य सबेरे ही दूत भेजूँगा। दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) सुनते ही तुरंत आ जाएँगे। अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधवाकर, सब तैयारी करके डंका बजाकर मैं भरत को राज्य दे दूँगा॥4॥
दोहा :
लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥
भावार्थ:-राम को राज्य का लोभ नहीं है और भरत पर उनका बड़ा ही प्रेम है। मैं ही अपने मन में बड़े-छोटे का विचार करके राजनीति का पालन कर रहा था (बड़े को राजतिलक देने जा रहा था)॥31॥
चौपाई :
राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ।
राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें।
तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥
भावार्थ:-राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूँ कि राम की माता (कौसल्या) ने (इस विषय में) मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। अवश्य ही मैंने तुमसे बिना पूछे यह सब किया। इसी से मेरा मनोरथ खाली गया॥1॥
रिस परिहरु अब मंगल साजू।
कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा।
बर दूसर असमंजस मागा॥2॥
भावार्थ:-अब क्रोध छोड़ दे और मंगल साज सज। कुछ ही दिनों बाद भरत युवराज हो जाएँगे। एक ही बात का मुझे दुःख लगा कि तूने दूसरा वरदान बड़ी अड़चन का माँगा॥2॥
अजहूँ हृदय जरत तेहि आँचा।
रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू।
सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥3॥
भावार्थ:-उसकी आँच से अब भी मेरा हृदय जल रहा है। यह दिल्लगी में, क्रोध में अथवा सचमुच ही (वास्तव में) सच्चा है? क्रोध को त्यागकर राम का अपराध तो बता। सब कोई तो कहते हैं कि राम बड़े ही साधु हैं॥3॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू।
अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनूकूला।
सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥4॥
भावार्थ:-तू स्वयं भी राम की सराहना करती और उन पर स्नेह किया करती थी। अब यह सुनकर मुझे संदेह हो गया है (कि तुम्हारी प्रशंसा और स्नेह कहीं झूठे तो न थे?) जिसका स्वभाव शत्रु को भी अनूकल है, वह माता के प्रतिकूल आचरण क्यों कर करेगा?॥4॥
दोहा :
प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखौं अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥
भावार्थ:-हे प्रिये! हँसी और क्रोध छोड़ दे और विवेक (उचित-अनुचित) विचारकर वर माँग, जिससे अब मैं नेत्र भरकर भरत का राज्याभिषेक देख सकूँ॥32॥
चौपाई :
जिऐ मीन बरु बारि बिहीना।
मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं।
जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥1॥
भावार्थ:-मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी होकर जीता रहे, परन्तु मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, मन में (जरा भी) छल रखकर नहीं कि मेरा जीवन राम के बिना नहीं है॥1॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना।
जीवनु राम दरस आधीना॥
सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई।
मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥2॥
भावार्थ:-हे चतुर प्रिये! जी में समझ देख, मेरा जीवन श्री राम के दर्शन के अधीन है। राजा के कोमल वचन सुनकर दुर्बुद्धि कैकेयी अत्यन्त जल रही है। मानो अग्नि में घी की आहुतियाँ पड़ रही हैं॥2॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया।
इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं।
मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं॥3॥
भावार्थ:-(कैकेयी कहती है-) आप करोड़ों उपाय क्यों न करें, यहाँ आपकी माया (चालबाजी) नहीं लगेगी। या तो मैंने जो माँगा है सो दीजिए, नहीं तो ‘नाहीं’ करके अपयश लीजिए। मुझे बहुत प्रपंच (बखेड़े) नहीं सुहाते॥3॥
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने।
राममातु भलि सब पहिचाने॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका।
तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥4॥
भावार्थ:-राम साधु हैं, आप सयाने साधु हैं और राम की माता भी भली है, मैंने सबको पहचान लिया है। कौसल्या ने मेरा जैसा भला चाहा है, मैं भी साका करके (याद रखने योग्य) उन्हें वैसा ही फल दूँगी॥4॥
दोहा :
होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥
भावार्थ:-(सबेरा होते ही मुनि का वेष धारण कर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन्! मन में (निश्चय) समझ लीजिए कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश!॥33॥
चौपाई :
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी।
मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई।
भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥1॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पाप रूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोध रूपी जल से भरी है, (ऐसी भयानक है कि) देखी नहीं जाती!॥1॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा।
भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला।
चली बिपति बारिधि अनूकूला॥2॥
भावार्थ:-दोनों वरदान उस नदी के दो किनारे हैं, कैकेयी का कठिन हठ ही उसकी (तीव्र) धारा है और कुबरी (मंथरा) के वचनों की प्रेरणा ही भँवर है। (वह क्रोध रूपी नदी) राजा दशरथ रूपी वृक्ष को जड़-मूल से ढहाती हुई विपत्ति रूपी समुद्र की ओर (सीधी) चली है॥2॥
लखी नरेस बात फुरि साँची।
तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी।
जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥3॥
भावार्थ:-राजा ने समझ लिया कि बात सचमुच (वास्तव में) सच्ची है, स्त्री के बहाने मेरी मृत्यु ही सिर पर नाच रही है। (तदनन्तर राजा ने कैकेयी के) चरण पकड़कर उसे बिठाकर विनती की कि तू सूर्यकुल (रूपी वृक्ष) के लिए कुल्हाड़ी मत बन॥3॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥4॥
भावार्थ:-तू मेरा मस्तक माँग ले, मैं तुझे अभी दे दूँ। पर राम के विरह में मुझे मत मार। जिस किसी प्रकार से हो तू राम को रख ले। नहीं तो जन्मभर तेरी छाती जलेगी॥4॥
चौपाई :
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता।
करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कंठु सूख मुख आव न बानी।
जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥
भावार्थ:-राजा व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को उखाड़ फेंका हो। कंठ सूख गया, मुख से बात नहीं निकलती, मानो पानी के बिना पहिना नामक मछली तड़प रही हो॥1॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई।
मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ।
मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥2॥
भावार्थ:-कैकेयी फिर कड़वे और कठोर वचन बोली, मानो घाव में जहर भर रही हो। (कहती है-) जो अंत में ऐसा ही करना था, तो आपने ‘माँग, माँग’ किस बल पर कहा था?॥2॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला।
हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई।
होइ कि खेम कुसल रौताई॥3॥
भावार्थ:-हे राजा! ठहाका मारकर हँसना और गाल फुलाना- क्या ये दोनों एक साथ हो सकते हैं? दानी भी कहाना और कंजूसी भी करना। क्या रजपूती में क्षेम-कुशल भी रह सकती है?(लड़ाई में बहादुरी भी दिखावें और कहीं चोट भी न लगे!)॥3॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू।
जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी।
सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥4॥
भावार्थ:-या तो वचन (प्रतिज्ञा) ही छोड़ दीजिए या धैर्य धारण कीजिए। यों असहाय स्त्री की भाँति रोइए-पीटिए नहीं। सत्यव्रती के लिए तो शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी- सब तिनके के बराबर कहे गए हैं॥4॥
दोहा :
मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥
भावार्थ:-कैकेयी के मर्मभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा कि तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नहीं है। मेरा काल तुझे मानो पिशाच होकर लग गया है, वही तुझसे यह सब कहला रहा है॥35॥
चौपाई :
चहत न भरत भूपतहि भोरें।
बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
सो सबु मोर पाप परिनामू।
भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
भावार्थ:-भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कुसमय (बेमौके) में विधाता विपरीत हो गया॥1॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई।
सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई।
होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥2॥
भावार्थ:- (तेरी उजाड़ी हुई) यह सुंदर अयोध्या फिर भलीभाँति बसेगी और समस्त गुणों के धाम श्री राम की प्रभुता भी होगी। सब भाई उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोकों में श्री राम की बड़ाई होगी॥2॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ
मुएहुँ न मिटिहि न जाइहि काऊ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई।
लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥3॥
भावार्थ:-केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरने पर भी नहीं मिटेगा, यह किसी तरह नहीं जाएगा। अब तुझे जो अच्छा लगे वही कर। मुँह छिपाकर मेरी आँखों की ओट जा बैठ (अर्थात मेरे सामने से हट जा, मुझे मुँह न दिखा)॥3॥
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी।
तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी।
मारसि गाइ नहारू लागी॥4॥
भावार्थ:-मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ कि जब तक मैं जीता रहूँ, तब तक फिर कुछ न कहना (अर्थात मुझसे न बोलना)। अरी अभागिनी! फिर तू अन्त में पछताएगी जो तू नहारू (ताँत) के लिए गाय को मार रही है॥4॥
दोहा :
परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥
भावार्थ:-राजा करोड़ों प्रकार से (बहुत तरह से) समझाकर (और यह कहकर) कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वी पर गिर पड़े। पर कपट करने में चतुर कैकेयी कुछ बोलती नहीं, मानो (मौन होकर) मसान जगा रही हो (श्मशान में बैठकर प्रेतमंत्र सिद्ध कर रही हो)॥36॥
चौपाई :
राम राम रट बिकल भुआलू।
जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई।
रामहि जाइ कहै जनि कोई॥1॥
भावार्थ:-राजा ‘राम-राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबेरा न हो और कोई जाकर श्री रामचन्द्रजी से यह बात न कहे॥1॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर।
अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई।
उभय अवधि बिधि रची बनाई॥2॥
भावार्थ:-हे रघुकुल के गुरु (बड़ेरे, मूलपुरुष) सूर्य भगवान्! आप अपना उदय न करें। अयोध्या को (बेहाल) देखकर आपके हृदय में बड़ी पीड़ा होगी। राजा की प्रीति और कैकेयी की निष्ठुरता दोनों को ब्रह्मा ने सीमा तक रचकर बनाया है (अर्थात राजा प्रेम की सीमा है और कैकेयी निष्ठुरता की)॥2॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा।
बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक।
सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥3॥
भावार्थ:-विलाप करते-करते ही राजा को सबेरा हो गया! राज द्वार पर वीणा, बाँसुरी और शंख की ध्वनि होने लगी। भाट लोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैये गुणों का गान कर रहे हैं। सुनने पर राजा को वे बाण जैसे लगते हैं॥3॥
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें।
सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
तेहि निसि नीद परी नहिं काहू।
राम दरस लालसा उछाहू॥4॥
भावार्थ:-राजा को ये सब मंगल साज कैसे नहीं सुहा रहे हैं, जैसे पति के साथ सती होने वाली स्त्री को आभूषण! श्री रामचन्द्रजी के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण उस रात्रि में किसी को भी नींद नहीं आई॥4॥
दोहा :
द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
भावार्थ:-राजद्वार पर मंत्रियों और सेवकों की भीड़ लगी है। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथजी अभी तक नहीं जागे?॥37॥
चौपाई :
पछिले पहर भूपु नित जागा।
आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई।
कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥
भावार्थ:-राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें॥1॥
गए सुमंत्रु तब राउर माहीं।
देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाई जनु जाइ न हेरा।
मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥2॥
भावार्थ:-तब सुमंत्र रावले (राजमहल) में गए, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। (ऐसा लगता है) मानो दौड़कर काट खाएगा, उसकी ओर देखा भी नहीं जाता। मानो विपत्ति और विषाद ने वहाँ डेरा डाल रखा हो॥2॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई।
गए जेहिं भवन भूप कैकेई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई।
देखि भूप गति गयउ सुखाई॥3॥
भावार्थ:-पूछने पर कोई जवाब नहीं देता। वे उस महल में गए, जहाँ राजा और कैकेयी थे ‘जय जीव’ कहकर सिर नवाकर (वंदना करके) बैठे और राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गए॥3॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ।
मानहु कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी।
बोली असुभ भरी सुभ छूँछी॥4॥
भावार्थ:-(देखा कि-) राजा सोच से व्याकुल हैं, चेहरे का रंग उड़ गया है। जमीन पर ऐसे पड़े हैं, मानो कमल जड़ छोड़कर (जड़ से उखड़कर) (मुर्झाया) पड़ा हो। मंत्री मारे डर के कुछ पूछ नहीं सकते। तब अशुभ से भरी हुई और शुभ से विहीन कैकेयी बोली-॥4॥
दोहा :
परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ ना मरमु महीसु॥38॥
भावार्थ:-राजा को रातभर नींद नहीं आई, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होंने ‘राम राम’ रटकर सबेरा कर दिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ भी नहीं बतलाते॥38॥
चौपाई :
आनहु रामहि बेगि बोलाई।
समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी।
लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥
भावार्थ:-तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजा का रुख जानकर सुमंत्रजी चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल की है॥1॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ।
रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें।
पूँछहिं सकल देखि मनु मारें॥2॥
भावार्थ:-सुमंत्र सोच से व्याकुल हैं, रास्ते पर पैर नहीं पड़ता (आगे बढ़ा नहीं जाता), (सोचते हैं-) रामजी को बुलाकर राजा क्या कहेंगे? किसी तरह हृदय में धीरज धरकर वे द्वार पर गए। सब लोग उनको मन मारे (उदास) देखकर पूछने लगे॥2॥
समाधानु करि सो सबही का।
गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
राम सुमंत्रहि आवत देखा।
आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥3॥
भावार्थ:-सब लोगों का समाधान करके (किसी तरह समझा-बुझाकर) सुमंत्र वहाँ गए, जहाँ सूर्यकुल के तिलक श्री रामचन्द्रजी थे। श्री रामचन्द्रजी ने सुमंत्र को आते देखा तो पिता के समान समझकर उनका आदर किया॥3॥
निरखि बदनु कहि भूप रजाई।
रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं।
देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥4॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी को (अपने साथ) लिवा चले। श्री रामचन्द्रजी मंत्री के साथ बुरी तरह से (बिना किसी लवाजमे के) जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहाँ-तहाँ विषाद कर रहे हैं॥4॥
दोहा :
जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥
भावार्थ:-रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने जाकर देखा कि राजा अत्यन्त ही बुरी हालत में पड़े हैं, मानो सिंहनी को देखकर कोई बूढ़ा गजराज सहमकर गिर पड़ा हो॥39॥
चौपाई :
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू।
मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
सरुष समीप दीखि कैकेई।
मानहुँ मीचु घरीं गनि लेई॥1॥
भावार्थ:-राजा के होठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना साँप दुःखी हो रहा हो। पास ही क्रोध से भरी कैकेयी को देखा, मानो (साक्षात) मृत्यु ही बैठी (राजा के जीवन की अंतिम) घड़ियाँ गिन रही हो॥1॥
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